पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०१

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उपशम प्रकरण। ७६३ सकते । हे रामजी ! जिस द्रव्य में मारने की सत्ता है वह मारता है और मद्य में मत्त करने की शक्ति है तैसे ही द्रव्य योग, काल मादिक में सिद्धता शक्ति नियत हुई है। जैसे एक औषध में क्लेश करने की शक्ति है तो उसके खाने से क्लेश होता हे तैसे ही इनमें अपनी-अपनी शक्ति है। जो इनको साधता है उसको ये प्राप्त होती हैं। मात्मज्ञानी जो उसको सापन करे तो वह कर्चा में भी भकर्ता है। पात्मज्ञान के पाने में सिद्धि कुछ उपकार नहीं कर सकती परन्तु जो इनकी वाञ्छा करे तो यन करके पाता है-पत्र बिना नहीं पाता। मात्मवानी को इच्छा भी नहीं होती क्योंकि प्रात्मलाभ से उसकी सब इच्छाएँ शान्त हो जाती हैं। हे रामजी! जितने लाभ हैं उनसे परम उत्तम प्रात्मलाभ है। भात्मा को पाकर फिर किसी की इच्छा नहीं होती। जैसे अमृत के पान किये और जल की इच्छा नहीं होती तैसे ही मात्मा के लाभ से और इच्छा नहीं होती। ऐसा मामलाम जिसने पाया है उसको इन सिद्धियों की इच्छा कैसे हो जैसी जैसी किसी की इच्छा होती है उसको तेसा ही प्राप्त होता है । ज्ञानी हो अथवा बान से रहित हो इच्छा और प्रयत्न के अनु. सार ही प्राप्त होती है । यह जो वीतव था उसको इच्छा कुछ नथी और प्रथम जो सूर्य के पास जाने की शक्ति दृष्टि आई थी सो क्रिया के साधने से थी, पीछे जब ज्ञान उपजा तब इच्छा कुछ न रही। हे रामजी । जो कुछ किसी को फल प्राप्त होता है सो अपने प्रयत्न से प्राप्त होता है। जो ज्ञानवान है वह सदा तृप्त रहता है उसको इष्ट अनिष्ट की इच्छा कुछ नहीं फरती। फिर रामजी ने पूछा, हे भगवन् ! तीन सौ वर्ष वीतव मुनीश्वर समाधि में रहा तो उसका शरीर पृथ्वी में पृथ्वी क्यों न हो गया और सिंह, भेड़िये, सियारमादिक उसको क्यों न भोजन कर गये ? पीछे विदेह- मुक्त हुमा, प्रथम क्यों न हुमा १ पृथ्वी में दवे हुए शरीर को निकालने के निमित्त बढ़ा यत्न क्यों किया, इन संशयों को निवारण करो। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! संवित वासना के साथ बंधी हुई सुख दुःख को भोगती है भोर मलीनभाव से घिरी हुई है, जो वासना से रहित शुद्ध समतारूप है और जो सुख दुःख के भोग से रहित है और किसी