पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०२

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योगवाशिष्ठ। कारण बेदी नहीं जाती। हे रामजी! जिस-जिस पदार्थ में चित्त लगता है वही वही पदार्थ स्वरूप में भासते हैं, यह पदार्थ की शक्ति है। जैसा पदार्थों में शक्ति होती है तैसे ही भासती है, इस कारण बहुत से व्यतीत होते हैं तो भी समाधि के बल से उसका शरीर ज्यों का त्यों रहता है. क्योंकि चित्त जिस पदार्थ में लगता है उसका रूप हो जाता है। जैसे मित्र को मित्रभाव से देखता है तो स्वाभाविक ही प्रसन्न होता हे मौर शत्रु को देखकर चित्त में स्वाभाविक ही अप्रसन्नता फर पाती है, मीठी वस्तु को देखकर चित्त स्वाभाविक ही लोलुप हो जाता है भौर कटुक में विरसता को प्राप्त होता है. मार्ग चलनेवाले का चित्त मार्ग के पर्वत और वृक्षों के राग से बधायमान नहीं होता, चन्द्रमा के निकट गये से शीतलता होती है और सूर्य के निकट उष्णता प्राप्त होती है सो पदार्थ की शक्ति है । जिस पदार्थ के साथ वृत्ति का स्पर्श होता है उसका स्वाभाविक प्रारम्भ सफल होता है । तैसे ही योगी जब देह मोर इन्द्रियों की वासना और ममत्वभाव को त्याग करके समभाव में प्राप्त होता है तब उसको समभाव का अनुभव होता है अर्थात् सबमें एक ही भासता है । इस कारण शरीर को सिंहादिक कोई भोजन नहीं कर सकते और जो जीव उसके घात करने को भाते हैं वे हिंसाभाव को त्याग भहिंसक हो जाते हैं। वीतव का शरीर जो छेद को न प्राप्त हुमा और न पृथ्वी में पृथ्वी हो गया उसका यह कारण है कि सर्वत्र समता भाकाश एक ही स्थित है और काष्ठ, लोष्ट, पत्थर ब्रह्मादि तृणपर्यन्त सबमें एक अनुस्यूत है, जहाँ पुर्यष्टका होती है वहाँ भासता है और जहाँ पुर्यष्टका नहीं होती वहाँ नहीं भासता, जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब सब ठोर में पूर्ण है परन्तु जहाँ स्वच्छ ठोर, दर्पण, जल भादि होते हैं वहाँ भासता है और जहाँ उज्ज्वल ठौर नहीं होतावहाँ प्रतिविम्ब नहीं भासता तैसे ही जहाँ पुर्यष्टका है वहाँ संवित् भासती है, अन्यथा नहीं भासती। इस कारण वीतव की संवित् जो समभाव में स्थित है उसको किसी तत्त्व और जीव का क्षोभ नहीं होता। पञ्चतत्त्वों का क्षोभ तब होता है जब प्राण फुरते हैं और जब प्राण फरने से रहित होते हैं तब तत्त्वों का बाभ