पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०४

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योगवाशिष्ठ। गुण कहाँ भान प्राप्त हुए १ वशिष्ठजी बोले, हे रामजीचित्त का नाश दो प्रकार का है। जीवन्मुक्त का चित्त अचित्तरूप हो जाता है और विदेह- मुक्त का चित्त स्वरूप से नष्ट हो जाता है । जैसे भुना दाना होता है तैसे ही जीवन्मुक्त का चित्त देखने में चित्तरूप हे सार्थक नहीं और जैसे दाना नष्ट हो जावे तैसे ही विदेहमुक्त का चित्त देखनेमात्र भी नहीं रहता। हे रामजी! वित्त की सत्यता ही दुःखों का कारण है और चित्त की असत्यता ही सुखों का कारण है । जिस चित्त में विषयों की वासना करती है सो चित्त जन्मों का देनेवाला है और दुःखों का कारण है । गुणों के संग से महंममभाव में रहता है और चित्त की सत्यता से जीव कहाता है। हे रामजी! जब तक चित्त विद्यमान है तब तक अनन्त दुःख होता है। दुःखरूपी वृक्ष का बीज चित्त ही है । जब चित्त नष्ट होता है तब कल्याण होता है । रामजी ने पूछा, हे ब्राह्मण ! मन किसका नाम है ? कैसे नष्ट होता है और कैसे भस्त होता है सो कहिये ? वशिष्ठजी ने कहा, हे प्रश्नकर्तामों में श्रेष्ठ चित्तसत्ता का लक्षण मैंने तुमसे कहा है, अब चित्त मृतक का लक्षण सुनो। जिसको सुख और दुःख की दशा स्वरूप से चला नहीं सकती। जैसे सुमेरु को पवन चला नहीं सकता तैसे ही जिसके चित्त को दुःख चला नहीं सकता तिसका वित्त मृतक जानो, अर्थात् जो चित्त सत्पद को प्राप्त हुभा है उस चित्त से मिथ्या चिन्ता नष्ट हो जाती है। जैसे भुने दाने में अंकुर नष्ट हो जाता हे तैसे ही उसका चित्त नष्ट हो जाता है । जिसको आत्मा से भिन्न कुछ नहीं फुरता वह चित्त मृतक हुमा है। हे रामजी जिसके चित्त को अहं इच्छा देषादिक विकार तुच्छ न कर सके उसका चित्त मृतक जानो और जिमको इन्द्रियों के विषय इष्ट- अनिष्ट न कर सके और रागदेष भोर प्राण त्याग की दैतभावना न उपजे ज्यों का त्यों रहे उसी पुरुष का चित्त मृतक जानो। जिसका चित्त नष्ट हुमा है उसे जीवन्मुक्त जानो। जिसको संसार के इष्ट पदार्थों में राग होता है वह प्रहण की इच्छा करता है और अनिष्ट की प्राप्ति में देष करके त्यागने की इच्छा करता है। महंमममावसंयुक्त देह में जो भभिमान है उससे भापको सुखी दुःखी मानता है यदि वासना संयुक्त है सो चित्तजीता है-यह चित्र-