पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०६

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७६८ योगवाशिष्ठ। है, न लक्ष्मी है, न अलक्ष्मी है, न उदय हे न मस्त है, न हर्ष है, नशोक है, न तेज है, न तम है, न दिन है, न रात्रि है, न संध्या है, न दिशा है, न भाकाश है, न अर्थ है, न अनर्थ है, न वासना है, न भवासना है, न जन हैन निञ्चन है, न सत्य है, न असत्य है, न चन्द्रमा है, न तार हैं और न सूर्य है ऐसा जो सर्वकलना से रहित शरत्काल के भाकाश की नाई निर्मल और बुद्धि से परे पद है उसमें और की गम नहीं। जैसे आकाश के स्थान को पवन जानता है तेसे ही उसकी अवस्था को वही जाने । वहाँ स्थित हुए सब दुःख शान्त हो जाते हैं और ब्रह्मानन्द में लीन हो जाता है। वानवार प्रकाश की नाई निर्मलपद को प्राप्त होता है जिसके पाये से और पाना कुछ नहीं रहता। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे ज्ञानवविचारो नाम पदशीतितमस्सर्गः॥८६॥ रामजी ने पूछा, हे भगवन् । परमाकाश के कोश में एक पहाड़ है उस पर जगरूपी एक वृक्ष है, तारे उसके फूल है, मेघ पत्र हैं, सूर्य,चन्द्रमा स्कन्ध है और देवता, दैत्य, मनुष्यादिक सब जीव उस पर पखेरू हैं। सातों समुद्र उस पहाड़ पर बावलियाँ हैं और मनन्त नदियाँ उममें प्रवेश करती हैं। चतुर्दश प्रकार के भूतजात उसमें उत्पन्न होते हैं और मुखदुःखरूपी फलों से पूर्ण है, भौर मोहरूपीजल से वह सींचा जाता है सो दृढ़ होकर स्थित हुआ है । उसका बीज कौन है ? बोध की वृद्धि के निमित्त यह बानरूपी सार मुझसे संक्षेप से कहिये ? वशिष्ठ जी बोले, हे रामजी ! इस संसार का बड़ा बीज चित्त (महंता) है, जिसके भीतर भारम्भ की घनता है। जबशुभ अशुभ का भारम्भ शरीर का अंकुर होता है तब शुभ अशुभ करता है, इससे संसार का बीज चित्त ही है, भोर शरीर का वीज भी चित्त ही है, राजस, सात्विक भोर तामस वृत्ति उसकी टहनियाँ हैं। वही जन्ममरण का भंडार है और सुखदुःखरूपी स्त्रों का डब्बा है। ऐसा जो चित्त है वह इस शरीर का कारण है । हे रामजी! जो कुछ जगजाल दृष्टि पाता है वह सब असवरूप है । चित्त के फुरने से नाना प्रकार के माडम्बर भासते हैं। जैसे गन्धर्वनगर नाना प्रकार के प्रारम्भ सहित भ्रम