पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०९

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, उपशम प्रकरण ८०१ कारण नहीं होतीक्योंकि मन में मन का सद्भाव नहीं होता है। जैसे नटुवा भभिमान से रहिन अनेक प्रकार के स्वाँग धरता है तैसे ही वह भभि. मान से रहित चेष्टा करता है और जैसे कुम्हार का चक्र भ्रमता भ्रमता ताड़ना से रहित हुमा शनेःशनैः स्थिर हो जाता है तेसे ही ज्ञानवान का चित्त चेष्टा करता दृष्ट भी भाता है परन्तु जन्म का कारण नहीं होता और प्रारब्धमोग समाप्त होता है तब स्वाभाविक ठहर जाता है । जैसे भुनाबीजनहीं उगतातैसे ही गगसे रहित ज्ञानी की चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती, देखने मात्र मानी और भवानी की चेष्टा तुल्य होती है। जैसे सुना मोर कच्चा बीज एक समान मासता है परन्तु कचा उगता है और मुना नहीं उगता तैसे ही ज्ञानी की चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती क्योंकि उसका चित्त शान्त हो जाता है । हे रामजी ! जिसकी चेष्टा अभिमान से रहित है वह जीवन्मुक्तकहाता है। उसका चित्त केवल चिन्मात्र को प्राप्त हुआ है और वह जब शरीर को त्यागता है तब अचित्तरूप चिदाकाश होता है। हे रामजी चित्त के दो चीज है-एक प्राणों का फुरना और दूसरा वासना का फुरना। जब दोनों में एक का प्रभाव हो जाता है तब दोनों नष्ट हो जाते हैं-ये परस्पर कारणरूप हैं। जैसे ताल से मेघ जल पान करके फिर वर्षा से ताल को पुष्ट करता है सो परस्पर कारणरूप है, तैसे ही प्राणस्पन्द और वासना परस्पर कारणरूप हैं । जैसे बीज से अंकुर होते हैं और अंकुर से बीज होते हैं तैसे ही प्राणस्पन्द से वासना होती है और वासना से प्राणस्पन्द होता है। ये दोनों चित्त के कारण हैं। जैसे फल विना सुगन्ध नहीं और सुगन्ध विना फूल नहीं होता तेसे ही वासना बिना पाण नहीं होते और प्राण बिना वासना नहीं होती। हे रामजी ! जब वासना फुरती है तब संवित् में शोभ होता है और वह प्राणों को जगाती है तब उससे जगत् उपजता है। जब हृदय में पाणस्पन्द के धर्म होते हैं तब संवित् क्षोभवान होता है और चित्त- रूपी बालक उपजता है । इस प्रकार वासना और प्राण दोनों चित्त के कारण हैं । जब दोनों में एक का नाश हो जावे तब दोनों नाश हो जावें और चित्त का भी नाश हो जावे । हे रामजी! चित्तरूपी एक वृक्ष