पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८१०

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८.२ योगवाशिष्ठ। है, सुखदुःखरूपी उसके स्कन्ध हैं, चिन्ताल्पी फल है, कार्यरूपी पत्र हैं, वृत्तिरूपी बेल से वेष्टित हुभा है और रागदेषरूपी दो बगले उस पर मान बैठे हैं तृष्णारूपी काली सर्पिणी से वेष्टित है भोर इन्द्रियाँरूपी पक्षी उस पर मान बैठे हैं, इच्छादिक रोगों से पुष्ट होता है और भावान इसका मूल है। जब प्रवासनारूपी खङ्ग से शीघ्र ही काटा जाता है तब संसार की प्रभावना और स्वरूप की भावना से शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जैसेतीक्ष्ण पवन से पका हुआ फल वृक्ष से शीघ्र ही गिर पड़ता है तेसे ही भात्मभाव से फल गिर पड़ता है। हे रामजी! चित्तरूपी भाँधी ने सब दिशामलीन करके प्रकाश को घेर लिया है और तृष्णारूपी तृण उसमें उड़ते हैं । शरीररूपी स्तम्भाकार बायगोला भवानरूपी कुण्ड से उपजा हुमा बड़े षोभ को प्राप्त करता है । जब हृदय में प्रकाश हो तब तम को दूर करे और जब स्पन्द रोकिये तब धूलि शान्त हो जाती है।मात्मविचार से जब वासना रहित हो तब शरीररूपी धुआँ शान्त हो जावे । हे रामजी। प्राणों के रोकने से शान्ति होती है और वासना के न उदय होने से चित्त स्थिर हो जाता है । प्राणस्पन्द और वासना का बीज संवेदन है, जब शुद्ध संवितमात्र से संवेदन को त्याग करे तब वासना भोर प्राण दोनों न फुरें। जैसे वृक्ष का बीज और मून काट डालिये तो फिर नहीं उगता, तेसे ही इनका मूल संवेदन है। जब संवेदन का प्रभाव हो तब दोनों नहीं बनते । संवेदन का बीज प्रात्मसत्ता है, संवितसत्ता से संवेदन प्रकट हुमा है उससे भिन्न नहीं । जैसे तिलों में तेल के सिवा और कुछ नहीं होता तैसे ही संविवसत्ता के सिवा हृदय में और कुछ नहीं पाया जाता- वही संकल्प द्वारा संवेदन को देखता है । जैसे स्वप्न में मनुष्य अपनी मृत्यु देखता है और देशान्तर को प्राप्त होता है तैसे ही भात्मसत्ता संवे. दनरूप होती है अर्थात् चिन्मात्र संवित् में संवेदन का उत्थान होता है कि 'महं अस्मि' तब संवेदन जगत्जाल दिखाती है। अपना ही संवेदन उठकर पापको भ्रम दिलाता है-जैसे बालक को अपने संकल्प से उपजा बेताल सत्य भासता है और जैसे स्थाणु में पुरुष भासता से ही संवित् में संवेदन भासता है। हे रामजी! असम्पकवान से संवेदनरूप हो जाता