पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८११

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उपशम प्रकरण। है तो उसमें प्रात्मबुद्धि होती है और सम्यकज्ञान से लीन हो जाता है। जेसे रस्सी में असम्यवान से सर्प भासता है तैसे ही प्रात्मा में संवदेन भासता है। तीनों जगत् ब्रह्म संविवरूप है, संवेदन भी कुछ भित्र नहीं। जिनको यह निश्चय हद होता है उनको बुद्धीश्वर सम्यकज्ञानी कहते हैं। प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जो जगत् है उसमें वस्तुबुद्धि त्याग करने से भी संसार के पार होता है और जो अवस्तुरूप जानकर न त्यागेगा तोजगद बड़े विस्तार को पावेगा। हे रामजी! संवेदन का जो उत्थान होता है सो बड़े दुःखों का देनेवाला है और संवेदन जो जड़वत् भजड़ है वह परम सुल सम्पदा का कारण है सो उत्थान से रहित भानन्दस्वरूप है। जिसको संवेदन उत्थान से रहित असंवेदन संवित् प्रात्मा की बुद्धि हुई है वह संसारसमुद्र से पार होता है । रामजी ने पूछा, हे प्रभो ! जड़ता से रहित असंवेदन कैसे होता है और मसंवेदन से जड़ता कैसे निवृत्त होती है। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी । जो सब ठौर में भासक्त नहीं होता और कहीं चित्त की वृत्ति नहीं लगती और जिसमें जीवत्व को कुछ बान न रहे वह असंवेदन जड़ता से रहित संवेदन स्पन्दरूप है जिससे दृश्य भासता है सोदृश्य की ओर से जड़ है और स्वरूप में चेतन है वह भजड़ कहाता है। हे रामजी! हृदयाकाश जो चेतन संवित है उससे संवेदन का स्पर्श कुछ न हो ऐसा संवित् भजड़ है । देवता, नाग, दैत्य, राक्षस, हाथी, मनुष्य भादिक स्थावर जङ्गमरूप सब वही धारती है । हे रामजी अपनी चेष्टा से संवित् पापको पाप ही बधाती है। जैसे कुसवारी पाप ही आपको गृह में बंधाती है तैसे ही संवित् भापको बंधाती है। जब अपनी भोर माती है तब भाप ही भापको प्राप्त होती है । हे रामजी! जगत् जाग्रत्- रूपी समुद्र है उसमें संविवरूपी जल है जिससे सब स्थान पूर्ण हो गये हैं। अन्तरिक्ष, पृथ्वी, भाकाश, पर्वत, नदी भादिक सब संविरूपी जल की लहरें हैं इससे सब जगत् संवित्मात्र है और उसमें बेतकलना का प्रभाव है । यह सम्यक्सान है । इस संवित् का बीज चिन्मात्र है उसमें देतकलना का अभाव है। यह सम्यक्सान है इस संवित् काबीज चिन्- मात्र है और चिन्मात्रसत्ता से सावत् उदय हुभाहै-जैसे प्रकाश से ज्योति