पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८१२

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योगवाशिष्ठ। उदय होती है। इस सत्ता के दो रूप हैं-एक रूप नाना प्रकार हो भासता है और दूसरा एक ही रूप है। घट, पट, तत्त्व भादिक एकसत्ता के नाना प्रकार विभाग स्थित है और विभाग से रहित एक सत्ता स्थित है- वह सत्तासमान देतरूप परमार्थ है। हे गमजी ! विषय को त्यागकर जो चिन्मात्र है वह भलेप एक रूप है सो ही महासत्ता है। उसको ज्ञान- वान परमसत्ता कहते हैं। नाना भाकार भी वह सत्ता कभी नहीं धारती। यह संवेदन से हुए हैं इस कारण भवस्तुरूप हैं । एक रूप जो परम सत्ता निर्मल भविनाशी हे वह न कभी नष्ट होता है और न विस्मरण होता है, क्योंकि अनुभवरूप है। हे रामजी ! एक कालसत्ता है और एक भाकाशसचा हे सोयह सचा भवस्तुरूप है। इस विभागसत्ता को त्यागकर चिन्मात्रसत्ता के परायण हो । कालसचा और प्राकाशसत्ता यद्यपि उत्तम है परन्तु वास्तव नहीं। जहाँ नाना विभागकलना, भाकार और नाना कारण है वह पवित्रका पावन नहीं। इसी से कहा है कि भाकाश काल भादिक सत्ता वास्तव नहीं और सत्तासमान जो संवितमात्र है वह सबका बीज है उसी से सबकी प्रवृत्ति होती है। हे रामजी! जो कुब पदार्थ हैं उनकी कलना सत्तासमान में हुई है। उस अनन्त, अनादि बीजरूप परमपद का बीज और कोई नहीं । जब उसका भान हो तब यह निर्विकार होकर स्थित हो। जीवन्मुक्त उसी को कहते हैं जिसे दृश्य की भावना कुछ न फरे । जैसे बालक मूक और अभिमान से रहित होता है तैसे ही बान से जीव निर्वासनिक हो तच जड़ता से मुक्त होता है और सर्व प्रात्मभाव को प्राप्त होता है । जिस संवित् में दृश्य का स्पर्श होता है वह संवित् जड़ है, क्योंकि शुद्धस्वरूप में मलीन का स्पर्श होता है। जो संवित दैत फरने से रहित है वह शुद्ध और मजड़ है और द्वैतभाव को ग्रहण करती है वह स्वरूप की भोर से जड़ है। हे रामजी ! जिसकी स्वरूप की भोर स्थित हुई है और दृश्यमाव का लेप नहीं होता है वह सर्ववासना को त्यागकर निर्विकल्प समाधि में लगता है। जैसे भाकाश में नीलता स्वाभाविक वर्तती है तैसे ही योगी भानन्द में वर्तता हे भोर निस्संवेदन संवित् में प्रविष्ट होकर वही रूप हो जाता है जिसके मन की