पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपशम प्रकरण वृत्ति वहाँ स्थिर हो जाती है और बैठते, चलते, स्पर्श करते, सुगन्ध लेते, देखते, सुनते और सब इन्द्रियों की क्रिया करते भी मन स्थिर रहता है दृश्य का अभिमान नहीं फुरता वह मजद कहाता है और संवेदन से रहित सुखी होता है। हे रामजी। ऐसी दृष्टि प्रथम तो कष्टरूप भासती है परन्तु पीछे सब दुःख का नाशकर्ता होती है, इससे इसी दृष्टि का माश्रय करके दुःखरूप जो संसारसमुद्र है उससे तरजानो। जैसे वट का बीज सूक्ष्म होता है पर विस्तार को पाकर भाकाश को स्पर्श करने लगता है तेसे ही सूक्ष्म संवेदन से जब संकल्प फैलता है तब वही बड़े जगत् के विस्तार को धारता है और जन्म के जाल को प्राप्त होता है। बीजरूप से भापही अपने को जन्मों में डालता और फिर फिर मोह में गिरता है। जब संवित् अपनी भोर होती है तब मोक्ष को प्राप्त होता है और जैसी भावना स्वरूप में दृढ़ होती है वही सिद्ध होती है। जैसे नया अनेक स्वाँग को धारता है तैसे ही संवित् भनेक भाकारों को धारती है । जब नट भूमिका को त्यागता है तब अपने स्वरूप में प्राप्त होता है । हे रामजी! संवितरूप नटकी जगवरूप धारकर नृत्य करती है। जो दुःखरूप संसार- समुद्र में न गिरे सो सत्ता सब कारणों की कारण है और उसका कारण कोई नहीं मोर वही सब सारों का सार है उसका सार कोई नहीं । उसी चेतनरूपी बड़े दर्पण में समस्त जगत् प्रतिविम्बित होता है। जैसे ताल में किनारे के वृक्ष प्रतिविम्बित होते हैं तैसे ही सब वस्तु विदर्पण में प्रति- विम्बित होती है।हेरामजी जो कुछ पदार्थ हैं वेसवमात्मसत्तासे सिद्ध होते हैं और उसी अनुभव में सबका अनुभव होता है । जैसे षट्रमों का स्वाद जिहा से सिद्ध होता तैसे ही सब पदार्थ चिदाकाश के भाश्रय सिद्ध होते हैं। जगत्गण उसी से उपजते हैं, उसी में वर्तते भौर बढ़ते हैं, उसी में स्थित दिखते हैं और उसी में लय होते हैं। सबका अधिष्ठान वही सचा है भोरगुरुका गुरु, लघुकीलघुता, स्थूल की स्थूलता, सूक्ष्म की सूक्ष्मता, द्रव्यों का द्रव्य, कष्टों में कष्ट, बड़े में बड़ाई, तेज का तेज, तम का तम, वस्तु की वस्तु, द्रष्टा का दृष्टा, किंचन में किंचन, निकिचन में निम्किचन, तत्त्वों का तत्त्व, असत्य का असत्य, सत्य का सत्य, माश्रय में प्राश्रय मोर