पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८१४

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योगवाशिष्ठ। अनाश्रम में अनाश्रम वही है । हे रामजी । ऐसी जो परमपावन सत्ता उसमें प्रयत्न करके स्थित हो, फिर जैसे इच्छा हो तैसे करो। वह भात्मतत्त्व निर्मल, अजर, अमर, शान्तरूप और चित्त के बोभ से रहित है, उसमें भव (संसार) से मुक्ति के निमित्त स्थित हो। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे स्मृतिबीजविचारो नाम सप्तशीतितमस्सर्गः॥७॥ रामजी ने पूछा, हे महानन्द के देनेवाले ! यह जो बीजों का वीज भापने कहा है सो किस प्रकार प्राप्त हो १ जिस प्रकार उस पद की शीघ्र प्राप्ति होवह उपाय कहिये । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी । इन सबके बीज का जो उत्तर दिया है उस उपाय से परमपद की प्राप्ति होती है। भवभोर भी जो तुमने पूछा है वह सुनो। सत्तासमान में स्थित होने के निमित्त यत्न कर्तव्य है। जो कुछ संसार की वासना है बल करके उसको त्याग करिये भौर शुद्ध प्रात्मा में तीन अभ्यास करिये तब शीघ्र ही भविघ्न मात्म-स्वरूप की प्राप्ति होगी। हे तत्ववेत्ता ! उस पद में एक क्षण भी स्थित होंगेतो अक्षयभाव को प्राप्त होंगे। हे रामजी! सत्तासमान संवित्- मात्र तत्त्व है उसमें स्थित होके जो इच्छा हो सो करो तब उसके सिवा और कुछ सिद्ध न होगा-सब वही भासेगा । ऐसा जो अनुभवतत्त्व है वह तुम्हारा स्वरूप है उसके ध्यान में स्थित हुए तुमको कुछ खेद न होगा। संवेदन के साथ ऐसा ध्यान नहीं होता और वह ऊँबापद है पुरुष प्रयत्न से उस पद को प्राप्त हो । हे रामजी ! केवल संवेदन के साथ ध्यान नहीं होता क्योंकि सर्वत्रसम्भव संवित् तत्त्व है । संवित् सर्वदा सर्व- काल सहायक होती है और सबसे मिली हुई है जो कुछ चितवे जो इच्छित हो, जो कुछ करे सो सब संवित से सिद्ध होता है । हे रामजी! मात्मतत्त्व प्रत्यक्ष है पर उसका भान नहीं होता और जो कुछ भासता है वही अविद्या भावरण है सो इसको दुःख होता है। स्वरूप के प्रसाद से जो दृश्य की वासना करता है उसकी दृढ़ता से अन्तःकरण दुःख पाता है। जब यत्न करके वासना का त्याग करिये तब मन और शरीर के दुःख सब नाश हो जायेंगे। पूर्व जो मोह दृढ़ हो रहा है-जैसे मेरुको मूल