पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८१७

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उपशमप्रकरणा होवेगा तैसे ही भोर उपायों से चित्त वश न होगा। इस विना जो मोर उपाय करते हैं वे मूर्ख हैं। जैसे मतवाला हाथी कमल की ताँत से बाँधा नहीं जाता और जो कोई इससे बाँधने लगे तो महामूर्ख है, तैसे ही मन के जीतने को और प्रकार जो हठ करते हैं सो महामूढ़ हैं। और उपाय करके क्लेश प्राप्त न होगा भात्मसुख प्राप्त न होगा। जैसे दुर्भागी जीवों को कहीं सुख नहीं होता है । हे रामजी! जिसने तीर्थ, दान, तप, और देवतामों की पूजा-यह चारों साधन किये हैं और मन जीतने का उपाय नहीं किया वह मृग की नाई भ्रमता फिरता है और पहाड़ों की कन्दरा में फल और पत्र खाता फिरता है, क्योंकि उसने मन का नाश नहीं किया इससे भात्मपद को नहीं पाया वह पशुओं के समान है, जैसे और पशु होते हैं तैसे ही वह भी है । हे रामजी ! जिस पुरुष ने मन को वश नहीं किया उसको शान्ति नहीं होती। जैसे कोमल अजवाला मृग ग्राम में जाने से शान्ति नहीं पाता और जैसे जल में पड़ा तृण नदी के वेग से भटककर कष्टवार होता है तैसे ही वह पुरुष कर्म करता है और मन को स्थित किये बिना कष्ट पाता है । कभी दुःख से जलता है और कभी कमों के वश से स्वर्ग को प्राप्त होता है पर वह भी नष्ट हो जाते हैं। जैसे जल में तरङ्ग उछलते हैं, कभी अधः को जाते और कभी ऊर्ध्व को जाते हैं तेसे ही कमों के वश से जीव स्वर्ग नरक में भ्रमते हैं । इससे ऐसी दृष्टि का त्याग करके शुद्ध संविदमात्र का भाश्रय करे और वीतराग होकर स्थित हो। हे रामजी ! जगत् में बान- वान ही सुखी है और जीता भी वही है, और सब दुःखी और मृतक समान हैं। और वली भी बानवान ही है जो मोहरूपी शत्रु को मारकर संसारसमुद्र के पार होता है और सब निल हैं। इससे तुम भी बानवान हो संवेदन रहित जो संवितमात्र तत्त्व है उसमें स्थित हो वह एक है और सबके भादि, सबसे उत्तम, कलना से रहित और सबमें स्थित है तो कर्ता हुए भी भकर्ता होगे मोर परब्रह्म उदय होगा। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे भष्टाशीतितमस्सर्गः॥८॥