पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८१८

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योगवाशिष्ठ। वशिष्ठजी बोले. हे रामजी। जिस पुरुष ने मात्मविचार कर अपना चित्त अल्प भी निग्रह किया है वह सम्पूर्ण फल को पास होगा और उसी का जन्म सफल होगा। हे रामजी। जिस चित्त में विचाररूपी कण का उदय हुआ है वह अभ्यास से बड़े विस्तार को पावेगा। हृदय में जो वैरागपूर्वक विचार उपजता है तो वह बढ़ता जाता है और भविद्या रूपी अवगुणों को काट डालेगा और सब शुभगुण मान उसमें भाजप करेंगे-जैसे जल से पूर्ण हुए ताल का सब पक्षी मान भाश्रय करते है। हे रामजी! किसको सम्यकशान प्राप्त होता है और निर्मख बोष से यथादर्शन होता है उसको इन्द्रियाँ चला नहीं सकतीं । जबतक स्व. रूप का प्रमाद होता है तबतक प्राधि-व्याधि दुःख होते हैं और जब स्व- रूप में स्थित होती है तब शरीर और मन के दुःख वश नहीं कर सकते- जैसे विजली को कोई ग्रहण नहीं कर सकता, तेसे पुष्टिकर मेषों को कोई पकड़ नहीं सकता, जैसे पाकाश के चन्द्रमा को मुष्टि में कोई नहीं पकड़ सकता और मूद मी चन्द्रमा को मोह नहीं सकती, तेसे ही ज्ञानवान को कोई दुःख वश नहीं कर सकता। हे रामजी! जो हाथी मद से मत्त है भोर जिसके मस्तक से मद भरता है मोर भवरे उसके भागे शब्द करते हैं उसको मच्छरों के प्रहार और बी के श्वास नहीं बेद सकते, तेसे ही बानवार को विषयों के रागदेष नहीं चला सकते। जिस हाथी के मस्तक से मोती निकलता है ऐसे बलवान हस्ती को नखों से विदारनेवाले सिंह को हरिण नहीं मार सकता, तैसे ही ज्ञानवान् को दुःख नहीं चला सकता। जिसके फरकार से वन के वृक्ष जल जाते हैं ऐसे सर्प को द१र नहीं पास कर सकते, तैसे ही बानवान् को रागदेष नहीं चला सकते । जैसे राज- सिंहासन पर बैठे राजा को तस्कर दुःख दे नहीं सकते, तेसे ही जो ज्ञानी स्वरूप में स्थित है उसको इन्दियों के विषय दुःख नहीं दे सकते । जो विचार से रहित देहाभिमानी हैं और भात्मतत्त्व को नहीं पास हुए उनको विषय उड़ा ले जाते है-जैसे सूखे पत्र को पवन उड़ा ले जाता है-और ज्ञानवान को नहीं चला सकते । जैसे पर्वत मन्द पवन से चलायमान नहीं होता, तेसे ही वानवान सुख दुःख में चलायमान नहीं होता और .