पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८१९

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उपशम प्रकरण। जो विचार से रहित हैं वह जगत् को सत् मानता है। सांसारिक पदायों में रत मनुष्य गुरु और शानों के मार्ग से विमुख है और मूढ़ होकर खाने पीने में सावधान हे वह विचार से शून्य व मृतक समान है। उसको यह विचार कर्तव्य है कि मैं कौनयह जगत् क्या है कैसे उत्पन्न हुमा है' और 'कैसे निवृत्त होगा। इस प्रकार विचारकर सन्तों के संग भोर अध्यात्मशान के विचार से जो पुरुष दृश्यभाव को त्यागकर भात्मतत्त्व में स्थित होता है वह परमपद पाता है। जैसे दीपक के प्रकाश से पदार्थ पाया जाता है, तैसे ही विचार से पात्मतत्त्व पाया जाता है।हे रामजी। जिसको शास्त्रविचार से भात्मतत्त्व का बोध होता है वह बानी कहाता है और वह ज्ञान बेय के साथ अभिवरूप है। अध्यात्मविद्या के विचार करके प्रात्मज्ञान प्राप्त होता है। जैसे दूध से मथकर मक्खन निकाला जाता है, तेसे ही विचार से पात्मज्ञान प्राप्त होता है। य जो भीतर हे सोई परब्रह्मस्वरूप है और सत्य है पर असत्य की नाई होकर स्थित है। ज्ञानवान उसकोपाकर तृप्त होता है और जीवन्मुक्त होकर अपने मापमें प्रकाशता है। जैसे चक्रवर्ती राज्य से मानन्द भोर तृति होती है तैसे ही ज्ञानवान ब्रह्मानन्द में इन्द्रियों की इच्छा से रहित शोभता है और शब्द, स्पर्श, रूप,रस औरगन्ध पाँचों इन्द्रियों के विषयों में बासक्त नहीं होता । सुन्दर राग, तन्त्री के शब्द, सियों के गाने भोर कोकिलापक्षी और गन्धर्व गन्धर्वी भादि के जोगायन हैं उनमें बहमासक्त नहीं होता। भगर, चन्दन, मन्दार कल्पवृक्ष के सुन्दर फूलों की सुगन्ध, अप्सरा और नागकन्याओं की नाई सुन्दर वियों का स्पर्श करने और हीरे, मणि मोर भूषण और नाना प्रकार के वनों में वह बन्धवान् नहीं होता। जैसे चन्द्रमा सुन्दर और शीतल है परन्तु सूर्यमुखी कमलों को विकाश नहीं कर सकता तैसे हासुन्दर स्पर्श बानी के चित्त को हर्षवान नहीं करता। जैसे मरुस्थल में हंस प्रसन नहीं होता तैसे शानवान् स्पर्श से प्रसन्न नहीं होता और रसादिक में भी बन्धवान नहीं होता।दूध, दही, घृतादिक रस, भक्ष्य, मोज्य, बेख और चोष्य, यह चारों प्रकार के भोजन और कटु, तीक्ष्ण, मीठा, खारा मादि जितने रस है इनकी हत्या मानवान नहीं ,