पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८२०

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८१२ योगवाशिष्ठ। करते और किसी में बन्धवान नहीं होते। वे मात्मबोध से नित्य तृप्त है और किसी भोग की इच्छा नहीं करते जैसे ब्राह्मण मुर्गी के मांस के खाने की इच्छा नहीं करते तैसे ही ज्ञानवान उर्वशी, रम्भा मेनका भादि अप्सरामों की इच्छा नहीं करते और चन्दन, अगर कस्तूरी, मन्दार भादि वृक्षों के फूलों की सुगन्ध की इच्छा नहीं करते। जैसे मछली मरुस्थल की इच्छा नहीं करती तैसे ही ज्ञानवान् सुगन्ध की इच्छा नहीं करते और रूप की इच्छा भी नहीं करते । सुन्दर बियाँ बाग, तालाब, नदियाँ इत्यादिक जो रूपवान पदार्थ हैं तिनकी इच्छा बानवान नहीं करते । जैसे चन्द्रमा बादलों की इच्छा नहीं करते तैसे ही ज्ञानवान रूप की इच्छा नहीं करते । भौर की क्या बात है, इन्द्र, यम, विष्णु, रुद्र, ब्रह्मा, समुद्र, कैलास, मन्दराचल, रत्न, मणि और कञ्चन ये जो बड़े बड़े पदार्थ हैं उनकी भी वे इच्छा नहीं करते । जैसे राजा नीच पदार्थों की इच्छा नहीं करता तैसे ही ज्ञानवान पदार्थों की इच्छा नहीं करते। समुद और सिंह के गर्जने और बिजली के कड़कने का जो भयानक शब्द है उसको भी सुनकर वह भयवान् नहीं होते-जैसे शूरमा धनुष का शब्द सुनकर भयवान नहीं होता । वानवान मतवाले हाथी, वैताल, पिशाच और इन्द्र के वन के शब्द मुनते और देखते हुए भी कम्पाय मान नहीं होते और सत्स्वरूप की स्थिति से कभी चलायमान नहीं होते। शरीर को जो भारे से काटिये, खड्ग से कणकण करिये औरवाणों से वेधिये तो भी कम्पायमान नहीं होते। उसको गगदेष भी किसी में नहीं होता, यदि शरीर पर एक मोर जलता अङ्गारा रखिये और एक मोर फूलों की माला रखिये तो भी वह हर्ष-शोकवान नहीं होता। एक भोर खगधारावत् तीक्ष्णस्थान हो और एक ओर पुष्पशय्या हो तो उसको दोनों तुल्य हैं। एक भोर शीतल स्थान हो और एक भोर गरम शिला हो तो दोनों उसको तुल्य हैं। एक भोर मारनेवाला विष हो भौर दूसरी भोर जियानेवाला अमृत हो तो उसको दोनों तुल्य हैं। हे रामजी! चाहे सम्पदा प्राप्त हो, चाहे भापदा हो, चाहे मृत्यु हो, चाहे उत्साह हो इनमें व्यवहार करता भी वह दृष्टि पाता है परन्तु हृदय से हर्ष मोर