पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८२१

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उपशम प्रकरण। ८१३ शोक नहीं । उसका मन ज्ञानसंयुक्त है और सदा सम रहता है। हे रामजी! बोहे के कुल्हाड़े से उसका मांस तोड़िये, नरक में डालिये और ऊपर शबों की वर्षा हो तो भी ज्ञानवान भय न पावेगा और न उद्वेगवान् और न व्याकुल होगा, न दीन होगा। वानवान् इनमें सदा समदृष्टि होकर पहाड़ की नाई धैर्यवान स्थित रहता है । हे रामजी! ज्ञानवान् रागदेष से रहित है और देह अभिमान से मुक्त हुया है। उसका शरीर अग्नि में पड़े, वा खाई में गिरे अथवा स्वर्ग में हो उसको दोनों तुल्य हे भोर वह हर्ष शोक से रहित है। हे रामजी ! जिसके स्वरूप में दृढ़ स्थिति हुई है वह चलायमान नहीं होता-जैसे मेरु स्थित है- उसको पवित्र पदार्थ हो अथवा अपवित्र पदार्थ हो, पथ्य हो व कुपथ्य हो, विष हो अथवा अमृत हो, मीठा, खट्टा, सलोना, कड़वा, दूध, दही, घृत, रस, रक्त, मांस, मद्य, अस्थि, तृण भादिक जो भक्ष्य, भोज्य, बेह्य चोष्य भोजन हैं वह सम हैं। न इष्ट में वह रागवान होता है और न भनिष्ट में देषवान है । यदि एक पुरुष प्राणों के निकालने को सम्मुख भावे और दूसरा प्राणों की रक्षा निमित्त भावे तो दोनों को वह प्रात्म- स्वरूप, शान्तमन और मधुररूप देखता है और रागदेष से रहित है। रमणीय भरमणीय पदायों को वह सम देखता है क्योंकि उसने संसार की मास्था त्याग दी है । बोधस्वरूप में वह निश्चित है, चित्त नीरागपद को प्राप्त हुआ है और सब जगत् उसको मात्मस्वरूप भासता है और शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्ध पञ्चविषयों के भोग अपना अवसर नहीं पाते । जैसे दर्पण देखने से प्रतिबिम्ब भासता है, दर्पण की सुरत रहती तैसे ही वह विषयों में प्रात्मा देखता है, विषयों की सुरत नहीं रहती भवानी को इन्द्रियाँ पास लेती है-जैसे तृणों को मृग पास लेता है। जिसने मात्मपद में विश्रान्ति पाई है उसको इन्द्रियाँ पास नहीं सकती। हे रामजी ! भज्ञानरूपी समुद्र में जो पड़ा है और वासनारूपी लहरों से मिलकर उबलता और गिरता है, उसको भाशारूपी तेंदुभा पास कर खेता है और हाय हाय करता है, शान्ति नहीं पाता । जो विचार करके भात्मपद को प्राप्त हुमा है वह विश्रान्ति को पा चलायमान