पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८२३

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उपशम प्रकरण - भनयों और संसार का कारण संग है। सबइवानों का कारण संग है और सब मापदामों का कारण संग है, संग के त्याग से मोक्षरूप मोर अजन्मा होता है। इससे संग को त्यागकर भोर जीवन्मुक्त होकर विचरो। रामजी ने पूछा, हे भगवन् ! भाप सर्वसंशयरूपी कुहिरे के नाशकर्ता शरत्काल के पवन है संग किसको कहते हैं, यह संक्षेप से मुझसे कहिये। बशिष्ठजी बोले, हे रामजी! माव-मभाव जो पदार्थ हैं वह हेर्ष मोर शोक के देनेवाले हैं। जिस मलिन वासना से यह प्राप्त होते हैं वही बासना संग कहाता है। हे रामजी! देह में जो महंबुद्धि होती है भोर संसार की जो सत्य प्रतीति है तो उस संसार के इष्ट अनिष्ट को रागदेष सहित ग्रहण करता है, ऐसी मखिन वासना संग कहाती है और जीवन्मुक्त की वासना हर्ष शोक से रहित शुद्ध होती है-सो निस्संग कहाती है । उसकी वासनाएँ जन्म मरण का कारण नहीं होती। हे रामजी ! जिस पुरुष को देह में भभिमान नहीं होता और जिसकी स्वरूप में स्थिति है वह शरीर के इष्ट भनिष्ट में रागदेष नहीं करता, क्योंकि उसकी शुद्ध वासना हे भोर जो कर्ता है सो बन्धन का कारण नहीं होता। जैसे भुना बीज नहीं उगता तैसे ही ज्ञानवान की वासना जन्म-मरण का कारण नहीं होती भोर जिसकी वृचि.जगत् के पदार्थों में स्थित है और रागद्वेष से ग्रहण त्याग करता है ऐसी मलिन वासना जन्मों का कारण है । इस वासना को त्यागकर जब तुम स्थित होगे तब तुम करते हुए भी निलेप रहोगे और हर्ष शोकादि विकारों से जब तुम रहित होगे तब वीतराग और भय और क्रोध से प्रसंग होगे। हे रामजी ! जिसका मन प्रसंग हुआ है वह जीवन्मुक्त हुमा है। इससे तुम भी वीतराग होकर आत्मतत्त्व में स्थित हो । जीवन्मुक्त पुरुष इन्द्रियों के प्राम को निग्रह करके स्थित होता है और मान, मद, वैर को त्यागकर सन्ताप से रहित स्थित होता है । वह सब मात्मा जानकर कर्म करता है परन्तु व्यवहार बुद्धि से रहित प्रसंग होकर कर्म करता है। वह कर्ता भी प्रकर्ता है उसको मापदा भयवा सम्पदा प्राप्त होमपने स्वभाव को नहीं त्यागता, जैसे क्षीरसमुद्र ने बन्दराचल पर्वत को पाकर शुक्खता को नहीं त्यागा,