पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८३

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मुमुक्षु प्रकरण।

बैठे थे तिनके निकट आकर कहने लगे, हे भगवन्! यह संसार सब भ्रमात्मक कहाँ से हुआ है; इसकी निवृत्ति कैसे होगी और आगे कभी इसकी निवृत्ति हुई है सो कहो? हे रामजी! जब इस प्रकार शुकजी ने कहा तब विद्वद्वेदशिरोमणि वेदव्यासजी ने तत्काल उपदेश किया। शुकजी ने कहा, हे भगवन्! जो कुछ तुम कहते हो वह तो मैं आगे से ही जानता हूँ, इससे मुझको शान्ति नहीं होती। हे रामजी! तब सर्वज्ञ वेदव्यासजी विचार करने लगे कि इसको मेरे वचन से शान्ति प्राप्त न होगी, क्योंकि पिता पुत्र का सम्बन्ध है। ऐसा विचार करके व्यासजी कहने लगे, हे पुत्र! मैं सर्वतत्वज्ञ नहीं, तुम गजा जनक के निकट जाओ, वे सर्वतत्वज्ञ और शान्तात्मा हैं, उनसे तुम्हारा मोह निवृत्त होगा। तब शुकदेवजी वहाँ से चलकर मिथला नगरी में आये और राजा जनक के द्वार पर स्थित हुए। द्वारपाल ने जाकर जनकजी से कहा कि व्यासजी के पुत्र शुकजी खड़े हैं। राजा ने जाना कि इनको जिज्ञासा है। इसलिए कहा कि खड़े रहने दो। इसी प्रकार फिर द्वारपाल ने जा कहा और सात दिन उन्हें खड़े ही बीत गये। तब राजाने फिर पूछा कि शुकजी खड़े हैं कि चले गये। द्वारपाल ने कहा, खड़े हैं। राजा ने कहा, भागे ले आओ। तब वे उनको आगे ले पाये। उस दरवाजे पर भी वे सात दिन खड़े रहे। फिर राजा ने पूछा कि शुकजी हैं? द्वारपाल ने कहा कि हाँ, खड़े हैं। राजा ने कहा कि अन्तःपुर में ले भागो और नाना प्रकार के भोग भुगताओ। तब वे उन्हें अन्तःपुर में ले गये। वहाँ वियों के पास भी वे सात दिन तक खड़े रहे। फिर राजा ने द्वारपाल से पूछा कि उसकी अब कैसी दशा है और भागे कैसी दशा थी? द्वारपाल ने कहा कि भागे वे निगदर से न शोकवान हुए थे और न अव भोग से प्रसन्न हुए, वे तो इष्ट अनिष्ट में समान हैं। जैसे मन्द पवन से मेरु चलायमान नहीं होता वैसे ही यह बड़े भोग व निरादर से चलायमान नहीं हुए जैसे पपीहे को मेघ केजल बिना नदी और ताल आदि के जल की इच्छा नहीं होती वैसे ही उसको भी किसी पदार्थ की इच्छा नहीं है। तब राजा ने कहा उन्हें यहाँ ले आओ। जब शुकजी आये तब राजा जनक ने उठके खड़े