पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८४

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योगवाशिष्ठ।

हो प्रणाम किया। फिर जब दोनों बैठ गये तब राजा ने कहा कि हे मुनीश्वर! तुम किस निमित्त आये हो, तुमको क्या वाञ्छा है सो कहो उसकी प्राप्ति में कर देऊँ? श्रीशुकजी बोले हे गुरो! यह संसार का आडम्बर, कैसे उत्पन्न हुआ और कैसे शान्त होगा सो तुम कहो? इतना कह विश्वामित्रजी बोले हे रामजी। जब इस प्रकार शुकदेवजी ने कहा तब जनक ने यथाशास्त्र उपदेश जो कुछ व्यास ने किया था सोई कहा। यह सुन शुकजी ने कहा कि भगवन्! जो कुछ तुम कहते हो सोई मेरे पिता भी कहते थे, सोई शास्त्र भी कहता है और विचार से मैं भी ऐसा ही जानता हूँ कि यह संसार अपने चित्त से उत्पन्न होता है और वित्तके निर्वेदहोने से भ्रम की निवृत्त होती है, पर मुझको विश्राम नहीं प्राप्त होता है? जनकजी बोले, हे मुनीश्वर! जो कुछ मैंने कहा और जो तुम जानते हो इससे पृथक उपाय न जानना और न कहना ही है। यह संसार चित्त के संवेदन से हुआ है, जब चित्त फुरने से रहित होता है तब भ्रम निवृत्त हो जाता है। आत्मतत्त्वनित्य शुद्ध; परमानन्दस्वरूप केवल चेतन्य है, जब उसका अभ्यास करोगे तब तुम विश्राम पावागे। तुम अधिकारी हो, क्योंकि तुम्हारा यत्न आत्मा की ओर है, दृश्य की ओर नहीं, इससे तुम बड़े उदारात्मा हो। हे मुनीश्वर! तुम मुझको व्यासजी से अधिक जान मेरे पास आयेहो, पर तुम मुझसे भी अधिक हो, क्योंकि हमारी चेष्टा तो बाहर से दृष्टि भाती है और तुम्हारी चेष्टा बाहर से कुछ भी नहीं, पर भीतर से हमारी भी इच्छा नहीं है। इतना कह विश्वामित्र जी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार राजा जनक ने कहा तब शुकजी ने निःसङ्ग निष्पयत्न और निर्भय होकर सुमेरु पर्वत की कन्दरा में जाय दशसहस्त्र वर्ष तक निर्विकल्प समाधि की जैसे तेल बिना दीपक निर्वाण हो जाता है वैसे ही वे भी निर्वाण हो गये। जैसे समुद्र में बुन्दलीन हो जाती है और जैसे सूर्य का प्रकाश सन्ध्याकाल में सूर्य के पास लीन हो जाता है वैसे ही कलनारूप कलङ्क को त्यागकर वे ब्रह्मपद को प्राप्त हुए।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे मुनिशुकनिर्वाण
वर्णनन्नाम प्रथमस्सर्गः॥१॥