पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८५

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मुमुक्षु प्रकरण।


विश्वामित्रजी बोले हे राजा दशरथ! जैसे शुकजी शुद्धिबुद्धि वाले थे वैसे ही रामजी भी हैं। जैसे शान्ति के निमित्त उनको कुछ मार्जन कर्तव्य था वैसे ही रामजी को भी विश्राम के निमित्त कुछ मार्जन चाहिए क्योंकि आवरण करनेवाले जो भोग हैं उनसे इनकी इच्छा निवृत्त हुई है और जो कुछ जानने योग्य था सो जाना है। अब हम कोई ऐसी युक्ति करेंगे जिससे इनको विश्राम होगा। जैसे शुकजी को थोड़े से मार्जन से शान्ति की प्राप्ति हुई थी वैसे ही इनको भी होगी। हे राजन्! जैसे ज्ञानवान् को आध्यात्मिक आदि दुःख स्पर्श नहीं करते वैसे ही रामजी को भी भोग की इच्छा नहीं स्पर्श करती। भोग की इच्छा सबको दीन करती है इसी का नाम बन्धन है और भोग की वासना का क्षय करना ही मोक्ष है। ज्यों ज्यों भोग की इच्छा करता है त्यों त्यों लघु होता जाता है और ज्यों ज्यों भोग वासना क्षय होती है त्यो त्यों गरिष्ठ होता है। जब तक प्रात्मानन्द का प्रकाश नहीं होता तब तक विषय की वासना दूर नहीं होती और जब आत्मानन्द प्राप्त होता है तब विषयवासना कोई नहीं रहती। जैसे मरुस्थल में वेलि नहीं उत्पन्न होती वैसे ही ज्ञानवान् को विषयवासना की उत्पत्ति नहीं होती। हे साधो! ज्ञानवान् किसी फल की इच्छा से विषय भोग का त्याग नहीं करता, स्वभाव से ही उसकी विषयवासना चली जाती है। जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार का अभाव हो जाता है वैसे ही रामजी को अब किसी भोग पदार्थ की इच्छा नहीं रही। अब तो वे विदितवेद हुए हैं अतः विश्राम की इच्छा रखते हैं इससे जो कहो वही करूँ जिससे वे विश्रामवान् हों। हे राजन्! भगवान वशिष्ठजी की युक्ति से ये शान्त होंगे और आगे से वही रघुवंशकुल के गुरु हैं। उनके उपदेश द्वारा आगे भी रघुवंशी ज्ञानवान् हुए हैं। ये सर्वज्ञ और साक्षिरूप हैं और त्रिकालज्ञ और ज्ञान के सूर्य हैं। इनके उपदेश से रामजी आत्मपद को प्राप्त होंगे। हे वशिष्ठजी! जब हमारा तुम्हारा विरोध हुआ था और ब्रह्माजी ने मन्दराचल पर्वत पर, जो ऋषीश्वरों और अनेक वृक्षों से पूर्ण था, संसार वासना के नाश, हमारे तुम्हारे विरोध की शान्ति और