पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८६

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योगवाशिष्ठ।

अन्य जीवों के कल्याणनिमित्त जो उपदेश किया था वह तुमको स्मरण है? अब वही उपदेश तुम रामजी को करो, क्योंकि ये भी निर्मल बानपात्र हैं। ज्ञान, विज्ञान और निर्मलयुक्ति वही है जो शुद्धपात्र में अर्पण हो और पात्र बिना उपदेश नहीं सोहता। जिसमें शिष्यभाव भोर विरक्तता न हो ऐसे अपात्र मूर्ख को उपदेश करना व्यर्थ है। कदाचित् विरक्त हो और शिष्यभावना नहीं तो भी उपदेश न करना चाहिये। दोनों से सम्पन्न को ही उपदेश करना चाहिये। पात्र बिना उपदेश व्यर्थ है अर्थात् अपवित्र हो जाता है। जैसे गऊ का दूध महापवित्र है पर श्वान की त्वचा में डारिये तो अपवित्र हो जाता है वैसे ही अपात्र को उपदेश करना व्यर्थ है। हे मुनीश्वर!जो शिष्य वैराग्य से सम्पन्न और उदार आत्मा है वह तुम्हारे उपदेश के योग्य है और तुम वीतराग और भय क्रोध से रहित परम शान्तरूप हो, इसलिये तुम्हारे उपदेश के पात्र रामजी हैं। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार विश्वामित्रजी ने कहा तब नारद और व्यासादिक ने साधु साधु कहा अर्थात् भला भला कहा कि ऐसे ही यथार्थ है। उस समय राजा दशरथ के पास बहुत प्रकार के साधु बैठे थे। ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ठजी ने कहा कि हे मुनीश्वर! जो कुछ तुमने आज्ञा की है वह हमने मानी। ऐसे किसी की सामर्थ्य नहीं कि सन्त की आज्ञा निवारण करे। साधो। राजा दशरथ के जितने पुत्र हैं उन सबके हृदय में जो अज्ञानरूपी तम है वह मैं ज्ञानरूपी सूर्य से ऐसे निवारण करूँगा जैसे सूर्य के प्रकाश से अन्धकार दूर होता है। हे मुनीश्वर! जो कुछ ब्रह्माजी ने उपदेश किया था वह मुझको अखण्ड स्मरण है मैं वही उपदेश करूँगा जिससे रामजी निःसंशय होंगे। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार वशिष्ठजी विश्वामित्र से कह रामजी से मोक्ष का उपाय कहने लगे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुनिविश्वामित्रोपदेशो नाम द्वितीयस्सर्ग्गः॥२॥

वशिष्ठजी बोले हे रामजी! ब्रह्माजी ने मुझको जीवों के कल्याण के निमित्त उपदेश किया था वह मुझे भले प्रकार स्मरण है और वही अब मैं तुमसे कहता हूँ। इतना सुन श्रीरामजी ने पूछा, हे भगवन्!