पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८७

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मुमुक्षु प्रकरण।

कुछ प्रश्न करने का अवसर आया है। एक संशय मुझको है सो दूर करो। मोक्ष उपाय जो संहिता कहते हो सो तुम सब कहोगे परन्तु यह जो तुमने कहा कि शुकदेवजी विदेहमुक्त हो गये तो भगवान् व्यासजी जो सर्वज्ञ थे सो विदेहमुक्त क्यों न हुए? वशिष्ठजी बोले कि हे रामजी जैसे सूर्य के किरण के साथ त्रसरेणु उड़ती देख पड़ती हैं और उनकी संख्या नहीं हो सकती वेसे ही परमसूर्य के संवेदनरूपी किरण में त्रिलोकीरूप असंख्य त्रसरेणु हैं अनन्त होकर मिट जाते हैं भोर अनन्त होते हैं। अनन्त त्रिलोकी ब्रह्म समुद्र में हैं उनकी संख्या कुछ नहीं। श्रीरामजी ने पूछा, हे भगवन! पीछे जो व्यतीत हो गये हैं और भागे जो होंगे उनकी कितनी संख्या है? वर्तमान को तो मैं जानता हूँ। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अनन्त कोटि त्रिलोकी के गण उपजे और मिट गये हैं। कितने ही होते हैं और कितने ही होवेंगे। इनकी कुछ संख्या नहीं है, क्योंकि जीव असंख्य हैं और जीव जीव प्रति अपनी अपनी सृष्टि है। जब ये जीव मृतक हो जाते हैं तब उसी स्थान में अपने अन्तवाहक संकल्परूपी पुर में इनको अपना बन्धन भासता है और उसी स्थान में परलोक भास आता है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश पञ्चभूत भासते हैं और नाना प्रकार की वासना के अनुसार अपनी अपनी सृष्टि भास आती है। फिर जब वहाँ से मृतक होता है तब वहीं फिर सृष्टि भास आती है नाम रूप संयुक्त वही जाग्रत सत्य होकर भास आती है। फिर जब वहाँ से मरता है तब इस पंञ्चभूत सृष्टि का प्रभाव हो जाता है। और दूसरी भासती हैं और वहाँ के जो जीव होते हैं उनको भी इसी प्रकार अनुभव होता है। इसी प्रकार एक एक जीव की सृष्टि होती है और मिट जाती है। इनकी संख्या कुछ नहीं। तब ब्रह्मा की सृष्टि की संख्या कैसे हो? जैसे मनुष्य घूमता है और उसको सर्व पदार्थ भ्रमते दृष्टि पाते हैं; जैसे नाव में बैठे हुए नदी के वृक्ष चलते दृष्टि पाते हैं; जैसे नेत्र के दोष से आकाश में मोती की माला दृष्टि माती है और जैसे स्वप्न में सृष्टि भासती है वैसे ही जीव को भ्रम से यह लोक परलोक भासता है। वास्तव में जगत् कुछ उपजा ही नहीं, एक अद्वैत परमात्मा