पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८८

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योगवाशिष्ठ।

तत्त्व अपने आप में स्थित है उसमें द्वैतभ्रम अविद्या से भासता है।जैसे बालक को अपनी परछाहीं में वैताल भासता है और भय पाता है वैसे ही अज्ञानी को कल्पना जगतरूप होकर भासती है। हे रामजी! व्यासजी को बत्तीस आकार से मैंने देखा है। उनमें दश एक आकार और क्रिया और निश्चयरूप हैं; दश अर्थ समान हुए हैं और बारह आकार क्रिया और चेष्टा में विलक्षण हुए हैं जैसे समुद्र में तरङ्गे होती हैं तो उनमें कई सम और कई विलक्षण उपजती हैं वैसे ही व्यास हुए हैं। सम जो दश हुए हैं उनमें दशवें व्यास यही हैं और आगे भी आठ बेर यही होंगे और महाभारत कहेंगे। नवीं बेर ब्रह्मा होकर विदेह मुक्त होंगे। हम और वाल्मीकि, भृगु और बृहस्पति का पिता अङ्गिरा इत्यादि भी विदेह मुक्त होवेंगे। हे रामजी! एक सम होते हैं और एक विलक्षण होते हैं। मनुष्य, देवता, तिर्यगादिक जीव कई बेर समान होते और कितने बेर विलक्षण होते हैं। कितने जीव समान आकार आगे से कुल क्रिया सहित होते हैं। और कितने संकल्प से उड़ते फिरते हैं। आना, जाना, जीना मरना, स्वप्न भ्रम की भाँति दीखता है पर वास्तव में न कोई आता है, न जाता है, न जन्मता है, न मरता। यह भ्रम अज्ञान से भासता है, विचार करने से कुछ नहीं भासता। जैसे कदली का खंभ बड़ा पुष्ट दीखता है, पर यदि खोल के देखो तो कुछ सार नहीं निकलता वैसे ही जगत्-भ्रम अविचार से सिद्ध है; विचार करने से कुछ नहीं भासता। हे रामजी! जो पुरुष आत्मसत्ता में जगा है उसको द्वैतभ्रम नहीं भासता। वह आत्मदर्शी, सदा शान्त आत्मा परमानन्दस्वरूप भोर इच्छासे रहित है। जैसे जीवन्मुक्त को कोई चला नहीं सकता वैसे ही व्यासदेवजी को संदेहमुक्ति और विदेहमुक्ति की कुछइच्छानहीं, वे तो सदा अद्वैतरूप हैं। हे रामजी! जीवन्मुक्त को सर्वत्र सर्वात्मा पूर्ण भासता है। वह तो स्वरूप, सार शान्तिरूप, अमृत से पूर्ण और निर्वाण में स्थित है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे असंख्यसृष्टि प्रतिपादनन्नाम तृतीयस्सर्गः॥३॥