पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८९

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मुमुक्षु प्रकरण।


इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कुछ भेद नहीं है। जैसे जल स्थिर है तो भी जल है और तरङ्ग है तो भी जल है वैसे ही जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कुछ भेद नहीं है। हे रामजी! जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति का अनुभव तुमको प्रत्यक्ष नहीं भासता, क्योंकि स्वसंवेद है और उनमें जो भेद भासता है सो असम्यकदर्शी को भासता है ज्ञानवान को भेद नहीं भासता। हे मननकर्ताओं में श्रेष्ठ रामजी! जैसे वायु स्पन्दरूप होती है तो भी वायु है और निस्स्पन्द होती है तो भी वायु है, निश्चय करके कुछ भेद नहीं पर और जीव को स्पन्द होती है तो भासती और निस्स्पन्द होती है तो नहीं भासती वैसे ही ज्ञानवान पुरुष को जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कुछ भेद नहीं, वह सदा मदत निश्चयवाला और इच्छा से रहित है। जब जीव को उसका शरीर भासता है तब जीवन्मुक्ति कहते हैं और जब शरीर अदृश्य होता है तब विदेहमुक्ति कहते हैं। पर उसको दोनों तुल्य है। हे रामजी! भव प्रकृत प्रसंग को जो श्रवण का भूषण है सुनिये। जो कुछ सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से सिद्ध होता है। पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता। लोग जो कहते हैं कि दैव करेगा सो होगा यह मूर्खता है। चन्द्रमा जो हृदय को शीतल और उल्लासकर्ता भासता है इसमें यह शीतलता पुरुषार्थ से हुई है। हे रामजी! जिस अर्थ की प्रार्थना और यत्न करे और उससे फिरे नहीं तो अवश्य पाता है। पुरुषप्रयत्न किसका नाम है सो सुनिये। सन्तजन और सत्यशाब के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ (प्रयत्न) है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है। जिस निमित्त यत्न करता है सोई पाता है। एक जीव पुरुषार्थ (प्रयत्न) करके इन्द्र की पदवी पाकर त्रिलोकी का पति हो सिंहासन पर आरूढ़ हुआ है। हे रामचन्द्र! आत्म तत्व में जो चेतन्य संवित है सो संवेदन रूप होकर फुरती है और सोई अपने पुरुषार्थ से ब्रह्म पद को पास हुई है। इसलिए देखो जिसको कुछ सिद्धता पास हुई है सो अपने पुरुषार्थ से ही हुई है। केवल चैतन्य आत्मतत्त्व है। उसमें चित्त संवेदन स्पन्दरूप है। यह चित्त संवेदन ही अपने पुरुषार्थ से