पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९१

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मुमुक्षु प्रकरण।

भी दृढ़ अभ्यास हो तो पूर्व के संस्कार को पुरुष प्रयत्न से जीत लेता है। जैसे पूर्व के संस्कार से दुष्कृत किया है और आगे सुकृत करे तो पिछले का अभाव हो जाता है सो पुरुष प्रयत्न से ही होता है। पुरुषार्थ क्या है और उससे क्या सिद्ध होता है सो श्रवण करिये। ज्ञानवान् जो सन्त हैं और सशास्त्र जो ब्रह्मविद्या है उसके अनुसार प्रयत्न करने का नाम पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ से पाने योग्य आत्मा है जिससे संसारसमुद्र से पार होता है। हे रामजी! जो कुछ सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है—दूसरा कोई दैव नहीं। जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ को त्यागकर कहता है कि जो कुछ करेगा सो देव करेगा वह मनुष्य नहीं गर्दम है उसका संग करना दुःख का कारण है। मनुष्य को प्रथम तो यह करना चाहिये कि अपने वर्णाश्रम के शुभ आचारों को ग्रहण करे और अशुभ का त्याग करे। फिर संतों का संग और सत्शास्त्रों का विचारना और उनको विचारकर अपने गुण दोष को भी विचार करना चाहिये कि दिन और रात्रि में क्या शुभ और अशुभ किया है। आगे फिर गुण और दोषों का भी साक्षीभूत होकर जो संन्तोष, धैर्य, विराग, विचार और अभ्यास आदि गुण हैं उनको बढ़ावे और जो दोष हों उनका त्याग करे। जब ऐसे पुरुषार्थ को अङ्गीकार करेगा तब परमानन्दरूप आत्मतत्त्व को पावेगा। इससे हे रामजी! जैसे वन का मृग घास, तृण और पत्तों को रसीला जानके खाता है वैसे ही स्त्री, पुत्र, बान्धव, धनादि में मग्न होना चाहिये। इनसे विरक्त होना और दाँतों से दाँतों को चबाकर संसारसमुद्र के पार होने का यत्न करना चाहिये। जैसे केसरी सिंह बल करके पिंजरे में से निकल जाता है वैसे ही निकल जाने का नाम पुरुषार्थ है। हे रामजी! जिसको कुछ सिद्धता की प्राप्ति हुई है उसे पुरुपार्थ से ही हुई है, पुरुषार्थ बिना नहीं होती जैसे प्रकाश बिना किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं होता। जिस पुरुष ने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है और देव के आश्रय हो यह समझता है कि हमारा देव कल्याण करेगा वह कभी सिद्ध नहीं होगा जैसे पत्थर से तेल निकाला चाहे तो नहीं निकलता वैसे ही उसका कल्याण देव से न होगा। इसलिये हे रामजी!