पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९२

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योगवशिष्ठ।

तुम दैव का आश्रय त्यागकर अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो। जिसने अपना पुरुषार्थ त्यागा है उसको सुन्दर कान्ति और लक्ष्मी त्याग जाती है। जैसे वसन्त ऋतु की मञ्जरी बसन्त ऋतु के जाने से विरस हो जाती है वैसे ही उनकी कान्ति लघु हो जाती है। जिस पुरुष ने ऐसा निश्चय किया है कि हमारा पालनेवाला दैव है वह पुरुष ऐसा है जैसे कोई अपनी भुजा को सर्प जान भय खाके दौड़ता है और भय पाता है। पुरुषार्थ यह है कि सन्त का संग और सत्शास्त्रों का विचार करके उनके अनुसार विचरे। जो उनको त्याग के अपनी इच्छा के अनुसार विचरते हैं सो सुख भोर सिद्धता न पावेंगे और जो शास्त्र के अनुसार विचरते हैं वह इस लोक और परलोक में सुख और सिद्धता पावेंगे। इससे संसाररूपी जाल में न गिरना चाहिये। पुरुषार्थ वही है कि सन्तजनों का संग करना और बोधरूपी कमल और विचाररूपी स्याही से सत्रशास्त्रों के अर्थ हृदयरूपीपत्र पर लिखना। जब ऐसे पुरुषार्थ करके लिखोगे तब संसाररूपी जाल में न गिरोगे। हे रामजी! जैसे यह पहले नियत हुआ है कि जो पट है सो पट है; जो घट है सो घट ही है; जो घट है सो पट नहीं और जो पट है सो घट नहीं वैसे ही यह भी नियत हुआ है कि अपने पुरुषार्थ बिना परमपद की प्राप्ति नहीं होती। हे रामजी! जो संतों की संगति करता है और सतशास्त्र भी विचारता है पर उनके अर्थ में पुरुषार्थ नहीं करता उसको सिद्धता नहीं प्राप्त होती। जैसे कोई अमृत के निकट बैठा हो तो पान किये बिना अमर नहीं होता वैसे ही अभ्यास किये बिना अमर नहीं होता और सिद्धता भी प्राप्त नहीं होती। हे रामजी! अज्ञानी जीव अपना जन्म व्यर्थ खोते हैं। जब बालक होते हैं तब मूढ़ अवस्था में लीन रहते हैं युवावस्था में विकार को सेवते हैं और जरा में जर्जरीभूत होते हैं। इसी प्रकार जीवन व्यर्थ खोते हैं और जो अपना पुरुषार्थ त्याग करके दैव का आश्रय लेते हैं सो अपने हन्ता होते हैं वह सुख न पावेंगे। हे रामजी! जो पुरुष व्यवहार और परमार्थ में आलसी होके और परमार्थ को त्यागके मूढ़ हो रहे हैं सो दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त हुए हैं। यह मैंने विचार करके देखा है। इससे तुम पुरुषार्थ का