पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९५

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मुमुक्षु प्रकरण।

सब कल्पना त्याग के एकान्त होकर उसका चिन्तन करे तब परमपद की प्राप्ति होगी और द्वैत भ्रम निवृत्त होकर अद्वैतरूप भासेगा। इसी का नाम पुरुषार्थ है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे परमपुरुषार्थ वर्णन-
न्नाम षष्ठस्सर्गः॥६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पुरुषार्थ बिना इसको आध्यात्मिक आदि ताप आ प्राप्त होते हैं उससे शान्ति नहीं पाता। तुम भी रोगी न होना, अपने पुरुषार्थ द्वारा जन्ममरण के बन्धन से मुक्त होना, कोई दैव मुक्ति नहीं करेगा। अपने पुरुषार्थ ही द्वारा संसार बन्धन से मुक्त होता है। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है और किसी और दैव को मानकर उसके आश्रित हुआ है उसके धर्म, अर्थ और काम सभी नष्ट हो जाते हैं और नीच से नीच गति को प्राप्त होता है। हे रामजी! शुद्ध चैतन्य जो इसका अपना आप वास्तवरूप है उसके आश्रय जो आदि चित्त संवेदन स्फूर्ति है सो अहं ममत्व संवेदन होके फुरने लगती है। इन्द्रियाँ भी अहंता से स्फूर्ति हैं जब यह स्फुरना सन्तों और शास्त्रों के अनुसार हो तब पुरुष परम शुद्धता को प्राप्त होता है और जो शास्त्र के अनुसार न हो तो वासना के अनुसार भाव अभावरूप भ्रमजाल में पड़ा घटीयन्त्र की नाई भटककर शान्तिमान् कभी नहीं होता। हे रामजी! जिस किसी को सिद्धता प्राप्त हुई है अपने पुरुषार्थ से ही हुई है। विना पुरुषार्थ सिद्धता को प्राप्त न होगा। जब किसी पदार्थ को ग्रहण करना होता है तो भुजा पसारे से ही ग्रहण करना होता है और जो किसी देश को जाना चाहे तो चलने से ही पहुँचता है अन्यथा नहीं। इससे पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता। जो कहता है कि जो देव करेगा सो होगा वह मूर्ख है। हे रामजी! दैव कोई नहीं है। इस पुरुषार्थ का ही नाम दैव है। यह दैव शब्द मूर्खों का प्रचार किया हुआ है कि जब किसी कष्ट से दुःख पाते हैं तो कहते हैं कि देव का किया है। पर कोई देव नहीं है। हे रामचन्दजी! जो अपना पुरुषार्थ त्याग के दैव के आश्रय हो रहेगा वह कभी सिद्धता को न प्राप्त होगा, क्योंकि अपने पुरुषार्थ बिना सिद्धता किसी को प्राप्त नहीं होती। जब बृहस्पति ने द्दढ़ पुरुषार्थ किया तब सर्व देवताओं के