पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९६

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योगवशिष्ठ।

राजा इन्द्र के गुरु हुए। शुक्रजी अपने पुरुषार्थ द्वारा सब दैत्यों के गुरु हुए हैं। जो समान जीव हैं उनमें जिस पुरुष ने प्रयत्न किया है सो पुरुष उत्तम हुआ है। जिसको जितनी सिद्धता प्राप्त हुई है अपने पुरुषार्थ से ही हुई है। जिस पुरुष ने सन्तों और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ नहीं किया उसका बड़ा राज्य, प्रजा, धन और विभूति मेरे देखते ही देखते क्षीण हो गई और नरक में गया है। जिससे कुछ अर्थ सिद्ध हो उसका नाम पुरुषार्थ है और जिससे अनर्थ की प्राप्ति हो उसका नाम अपुरुषार्थ है। हे रामजी! मनुष्य को सत्शास्त्रों और सन्तसंग से शुभ गुणों को पुष्ट करके दया, धैर्य, सन्तोष और वैराग्य का अभ्यास करना चाहिये। जैसे बड़े ताल से मेघ पुष्ट होता है और फिर वर्षा करके ताल को पुष्ट करता है वैसे ही शुभ गुणों से बुद्धि पुष्ट होती है और शुद्ध बुद्धि से शुभ गुण पुष्ट होते हैं। हे रामजी! जो बालक अवस्था से अभ्यास किये होता है उसको सिद्धता प्राप्त होती है अर्थात् दृढ़ अभ्यास बिना सिद्धता प्राप्त नहीं होती। जो किसी देश अथवा तीर्थ को जाना चाहे तो मार्ग में निरालस होके चला जावे तभी जा पहुँचेगा। जब भोजन करेगा तभी सुधा निवृत्त होगी—अन्यथा न होगी। जब मुख में जिह्वा शुद्ध होगी तभी पाठ स्पष्ट होगा—गूँगे से पाठ नहीं होता। इसलिये जो कुछ कार्य सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है; चुप हो रहने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। यहाँ सब गुरु बैठे हैं इनसे पूछ देखो; आगे जो तुम्हारी इच्छा है सो करो और जो मुझमे पूछो तो मैं सब शास्त्रों का सिद्धान्त कहता हूँ जिससे सिद्धता को प्राप्त होगे। हे रामजी! सन्तों अर्थात् ज्ञानवान् पुरुषों और सत्शास्त्रों अर्थात् ब्रह्मविद्या के अनुसार संवेदन मन और इन्द्रियों का विचार रखना और जो इनसे विरुद्ध हों उनको न करना। इससे तुमको संसार का राग-द्वेष स्पर्श न करेगा और सबसे निर्लेप रहोगे। जैसे जल से कमल निर्लेप रहता है वैसे ही तुम भी निर्लेप रहोगे। हे रामजी! जिस पुरुष से शान्ति प्राप्ति हो उसकी भली प्रकार सेवा करनी चाहिये, क्योंकि उसका बड़ा उपकार है कि संसार समुद्र से निकाल लेता है। हे रामजी! सन्तजन और सदशास्त्र भी वही