पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९७

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मुमुक्षु प्रकरण।

हैं जिनके विचार और संगति से संसार से चित्त उसकी ओर हो और मोक्ष का उपाय वही है जिससे और सब कल्पना को त्याग के अपने पुरुषार्थ को अङ्गीकार करे जिससे जन्ममरण का भय निवृत्त हो जावे। हे रामजी! जिस वस्तु की जीव वाञ्छा करता है और उसके निमित्त दृढ़ पुरुषार्थ करता है तो अवश्य वह उसको पाता है। बड़े तेज और विभूति से सम्पन्न जो तुमको दृष्टि आता और सुना जाता है वह अपने पुरुषार्थ से ही हुआ है और जो महानिकृष्ट सर्प, कीट आदिक तुमको दृष्टि पाते हैं उन्होंने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है तभी ऐसे हुए हैं। हे रामजी! अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो नहीं तो सर्प कीटादिक नीच योनि को प्राप्त होंगे। जिस पुरुष ने अपना पुरुषार्थ त्यागा और किसी देव का आश्रय लिया है वह महामूर्ख है, क्योंकि वह वार्ता व्यवहार में भी प्रसिद्ध है कि अपने उद्यम किये बिना किसी पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती तो परमार्थ की प्राप्ति कैसे हो। इससे परमपद पाने के निमित्त दैव को त्यागकर सन्तजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार यत्न करो तब जो दुःख हैं वे दूर होवेंगे। हे रामजी! जनार्दन विष्णुजी अवतार धारण करके दैत्यों को मारते हैं और अन्य चेष्टा भी करते हैं परन्तु उनको पाप का स्पर्श नहीं होता, क्योंकि वे अपने पुरुषार्थ से ही अक्षयपद को प्राप्त हुए हैं। इससे तुम भी पुरुषार्थ का आश्रय करो और संसार समुद्र से तर जावो।

इति श्री योगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे पुरुषार्थोपमावर्णनन्नाम
सप्तमस्सर्गः॥७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो शब्द है कि "दैव हमारी रक्षा करेगा" सो किसी मूर्ख की कल्पना है। हमको तो दैव का आकार कोई दृष्टि नहीं पाता और न कोई दैव का आकार ही जान पड़ता है और न दैव कुछ करता ही है। मूर्ख लोग दैव दैव कहते हैं, पर दैव कोई नहीं है, इसका पूर्व का कर्म ही दैव है। हे रामजी! जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है और देवपरायण हुआ है कि वह हमारा कल्याण करेगा वह मूर्ख है, क्योंकि अग्नि में जा पड़े और दैव निकाल ले तब जानिये कि कोई दैव भी है, पर सो तो नहीं होता। स्नान, दान, भोजन