पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९२
योगवाशिष्ठ।

आदिक त्याग करके चुप हो बैठे और आप ही देव कर जावे सो भी किये बिना नहीं होता इससे दैव कोई नहीं, अपना पुरुषार्थ ही कल्याणकर्ता है। हे रामजी! जीव का किया कुछ नहीं होता और देव ही करने वाला होता तो शास्त्र और गुरु का उपदेश भी न होता। इससे स्पष्ट है कि सत्शास्त्र के उपदेश से अपने पुरुषार्थ द्वारा इसको वाञ्छित पदवी प्राप्त होती है इससे और जो कोई देव शब्द है सो व्यर्थ है। इस भ्रम को त्याग करके सन्तों और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ करे तब दुःख से मुक्त होगा। हे रामजी! और देव कोई नहीं है इसका पुरुषार्थ जो स्पन्द है सोई दैव है, हे रामजी! जो कोई और देव करनेवाला होता तो जब जीव शरीर को त्यागता है और शरीर नष्ट हो जाता है—कुछ क्रिया नहीं होती क्योंकि चेष्टा करनेवाला त्याग जाता है तब भी शरीर से चेष्टा कराता सो तो चेश कुछ नहीं होती, इससे जाना जाता है कि दैव शब्द व्यर्थ है। हे रामजी! पुरुषार्थ की वार्ता अज्ञानी जीव को भी प्रत्यक्ष है कि अपने पुरुषार्थ बिना कुछ नहीं होता। गोपाल भी जानता है कि मैं गौओं को न चराऊँ तो भूखी ही रहेंगी। इससे वह और दैव के आश्रय नहीं बैठ रहता, आप ही चरा ले आता है। हे रामजी! दैव की कल्पना भ्रम से करते हैं। हमको तो देव कोई दृष्टि नहीं आता और हाथ, पाँव, शरीर भी देव का कोई दृष्टि नहीं आता। अपने पुरुषार्थ से ही सिद्धता दृष्टि पाती है। जो कोई आकार से रहित दैव काल्पये तो भी नहीं बनता, क्योंकि निराकार और साकार का संयोग कैसे हो। हे रामजी! दैव कोई नहीं है केवल अपना पुरुषार्थ ही देवरूप है। जो राजा ऋद्धिसिद्धि संयुक्त भासता है सो भी पाने पुरुषार्थ से ही हुआ है। हे रामजी! ये जो विश्वामित्र हैं, इन्होंने देव शब्द दूर ही से त्याग दिया है। ये भी अपने पुरुषार्थ से ही क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए हैं और भी जो बड़े बड़े विभूतिमान हुए हैं सो भी अपने पुरुषार्थ से ही दृष्टि आते हैं। हे रामजी! जो देव पढ़े बिना पण्डित करे तो जानिये दैव ने किया, पर पढ़े बिना तो पण्डित नहीं होता। जो अज्ञानी से ज्ञानवान होते हैं सो भी अपने पुरुषार्थ से ही होते हैं। इससे देव कोई नहीं। मिथ्या भ्रम को त्यागकर