पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१००

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ईश्वरोपाख्याने मनःप्राणोक्तप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (९८१ ) हे मुनीश्वर ! न नाना है, न अनाना है, जैसे अणुविषे सुमेरु नहीं होता, न शब्द हैं, न शब्दका अर्थ है, जैसे मरुस्थलविणे वल्ली नहीं होती, न वस्तु है,न अवस्तु है, जैसे बर्फ विषे उष्णता नहीं होती, न शून्यहै, न अशून्य है, न जड है, न चेतन है, जैसे सूर्यमंड़लविषे अंधकार नहीं होता ॥ हे मुनीश्वर! इत्यादिक शब्द अरु अर्थकी कल्पना उसविषे कछु नहीं जैसे अग्निविषे शीतलता नहीं होती; केवल केवलीभाव अद्वैत चिन्मात्र तत्त्व है, स्वरूपते किसीको कछु भी दुःख नहीं ॥ हे मुनीश्वर !जगत्को असत् जानकार अभावना करनी, अरु आत्माको सच जानिकार भावना करनी इस भावनाकार सर्व अनर्थ निवृत्तहो जाते हैं, सो अपर किसीकर प्राप्त नहीं होता अपने आपहीकार प्राप्त होता है, अरु अनादिही मिद्ध हैं, जब तिसकी ओर भावना होती है, तब भ्रम सब सिटि जाता है, जब अनात्मभावना होती है, तब पाना कठिन होता है, यत्नविना वह कैसे पावै, जो यत्न साथ है, सो यत्नविना नहीं पाया जाता, आत्मा कैमा है, निर्विकल्प है, अद्वैत है, सर्वते अतीत है, सो अभ्या- सविना कैसे पाइये, आत्मतत्त्व परम- है, एक स्वच्छ है, तेजका भी प्रकाशक है, सर्वगत निर्मल नित्य है, सदा उदित निर्मन शक्ति- रूप है, निर्विकार निरंजन हैं, सो घट, पट, वट, वृक्षविषे, गादीविषे, वानरविषे, दैत्य देवता समुद्रविषे, हस्तिविषे इत्यादिक स्थावरजंग- मरूप जेता कछु जगत् है, सो सर्वविघे एक आत्मतत्त्वविषे साक्षी- रूप होकरि स्थित है, दीपकवत् सर्वको प्रकाशता है, अरु सर्व क्रियाते अतीत है, अरु तिसकर सर्व कार्यसिद्धि होती है, सर्व क्रिया संयु- क्त भासता है, अरु सर्व विकल्पते रहित जडवत् भी भासता है; परं- तु परम चेतन है, सर्वं चेतनका सार चेतन है, निर्विकल्प परम सूक्ष्म है, अरु अपने आपविषे किंचन हो भासता हैं, अरु अपने प्रमाद- करिकै रूप अवलोकन नमस्कार त्रिपुटी भासती है, जब बोध होता है, तब ज्योंका त्यों आत्मा भासता है, नित्य शुद्ध निर्मल परमानंद- रूप है, तिसके प्रमादकारिकै चित्तभावको प्राप्त होता है, जैसे साधु भी दुर्जनके संगकरिकै असाधु हो जाते हैं, तैसे अनात्माके संगकार