पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०१

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(९८२) योगवासिष्ट । यह नीचताको प्राप्त होता है, जैसे सोना धातुकी मिलवनीकार खोटा हो जाता है, जब शोधाजाता है, तब शुद्धताको प्राप्त होता है, तैसे अनात्माके सँगकार यह जीव दुःखी होता है, जब अभ्यास यत्न कृरिकै अपने शुरूपको पाता है, तब वहीरूप हो जाता है, जैसे सुखके श्वासकार दर्पण मलिन हो जाता है, तब उसविषे सुख नहीं भासता, जब मलिनता निवृत्त होती है, तब शुद्ध होता है, तिसविषे मुख स्पष्ट भासता है, तैसे चित्त संवेदन प्रमादते ऊरणेकार जगद्धम भासने लगता है, अरु आत्मस्वरूप नहीं भासता, जब यह जगत्सत्ता फुरणेस- हित दूर होवैगी, तब आत्मतत्त्व भासेगा, जगतकी असत्यता भासैगी । हे मुनीश्वर ! जब शुद्ध संविविषे चेतनका ऊरणा निवृत्त होता है, तब अहंताभावको प्राप्त होता है, जब अहंकारको प्राप्त भया, तब अवि- नाशी रूपको विनाशी जानता है ॥ हे मुनीश्वर ! स्वरूपते कछु भी उत्थान होता है, तिसकार स्वरूपते गिरकै कष्ट पाता है, जैसे पहाड़ते गिरा अध चला जाता है, अरु चूर्ण होता है, तैसे स्वरूपते उत्थान हुआ, अरु अनात्माविषे अभिमान अहं प्रतीत हुई, तब अनेक दुःखहूको प्राप्त होता है । है मुनीश्वर ! सर्व पदार्थका सत्तारूप आत्मा है, तिसके अज्ञानकारकै देवत्वभावको प्राप्त हुआ है, जब तिसका बोध होवै, तब देवत्वभाव निवृत्त हो जावैगा, सो आत्मा शुद्ध चिन्मात्रस्वरूप है, तिसकी सत्ता कारकै देह इंद्रियादिक भी चेतन होते हैं, अरु अपने अपने विषयको ग्रहण करते हैं, जैसे सूर्य के प्रकाशकार सब जगत्का व्यवहार होता है, प्रकाशविना व्यवहार नहीं होता, तैसे आत्माकी सत्त कारकै देह इंद्रियादिकका व्यवहार होता है, अपने अपने विषयको ग्रहण कर लिया है ॥ हे मुनीश्वर ! प्राणवायुको किये जो नेत्रहूविषे सुख श्यामता है, सो अपने आपविषे रूपको ग्रहण करती है, तिसका बाह्य विपयनाथ संयोग होताहै, तिस रूपका जिसविषे अनुभव होताहै, सो परम चैतन्यसत्ता है, त्वचा इंद्रियां अरु स्पर्शविषे जब संयोग होताई, इन जडनहूका जिस्कार अनुभव होता है, सो साक्षीभूत परम चेतन- सत्ता है, अरु नासिका इंद्रियका जब गंध तन्मात्रसाथ संयोग होता है,