पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०२

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ईश्वरोपाख्याने मनःप्राणोक्तप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (९८३) तिसके संयोगविषे जो अनुभव सत्ता है सो परम चेतन है, इसीप्रकार शब्द स्पर्श रूप रस गंध यह जो पांचों विषय हैं, अरु श्रोत्र नेत्र त्वचा रसना नासिका इन पांचों इन्द्रियसाथ मिलकर इनके जाननेवाला साक्षीभूत परम चेतन आत्मतत्त्व है, सो सुख संवित् परम चेतन कहाता है, अरु जो बहिर्मुख ऊरिकार दृश्यसाथ मिला है, सो मलिन चित्त कहाता है, अरु जब वही मलिनरूप अपने शुद्ध स्वरूपविषे स्थित होता है, तब शुद्ध होता है । हे मुनीश्वर ! यह जगत् सब आत्मस्वरूप है, शिला घनकी नाईं अद्वैत सर्व विकारते रहित है, न उदय होता, न अस्त होता है, संकल्पके वशते जीवभावको प्राप्त होता है, संकल्पके निवृत्त हुए परमात्मारूप हो जाता है । हे मुनीश्वर ! आदि जो चित्त- कला फुरी हैं, सो जीवरूपी रथपर आरूढ हुए हैं, अरु जीव अहंकार- रूपी रथपर आरूढ हुआ है, अहंकार बुद्धिरूपी रथपर आरूढ है, अरु बुद्धि मनरूपी रथपर आरूढ है, मन प्राणरूपी रथपर चढ़ा हैं, अरु प्राण इन्द्रियरूपी रथपर चढे हैं, इंद्रियका रथ देह है, अरु देहका रथ पदार्थ है, जो कम करती है, कर्महूकार जरामरणरूपी संसारपिंजरेविषे भ्रमती है, इसप्रकार चक्र वर्तता है, तिसविपे जीव प्रमाद करिके पड़ा भटकता है ।। हे मुनीश्वर ! यह चक्र आत्माका आभास विरूप हैं, जैसे स्वप्नपु- रविषे नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं, सो वास्तव कछु नहीं, तैसे यह जगत वास्तव कछु नहीं, जैसे भृगतृष्णाकी नदी भ्रमकारकै भासती है, तैसे यह जगत् भ्रमकारकै भासता है॥हे मुनीश्वर ! मनका रथ प्राणहै, जब प्राणकला ऊरणेते रहित होती है, तब मन भी स्थित हो जाता है, प्राणके स्थित हुऐ मनका मनन शांत होजाता है, अरु जब प्राणकला फुरती है, तब मनका मनन भी फुरता है, प्राणकला स्थित भई, तब मनन निवृत्त हो जाता हैं, जैसे प्रकाशविना पदार्थ नहीं भासते, जैसे वायुके शांत हुए धूलि उडनेते रहिजाती हैं, तैसे प्राणके फुरनेते रहित मन शांत होता है, जैसे जहां पुष्प होते हैं तहां गंध भी होती है, जहां अग्नि है। तहां उष्णता भी होती है, तैसे जहां प्राणस्पंद होता है, तहाँ मन भी होता है, हृदयविषे जो नाड़ी हैं, तिसविषे प्राण स्वतः फुरते हैं, तिसकार