पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०४

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ईश्वरोपाख्याने देहपातविचारवर्णन-निर्याणप्रकरण ६, (९८५) लगी है, अज्ञान कारिंकै आच्छादित जीव महादीनभावको प्राप्त हुआ। जड़ देहके अध्यासकार कष्टु पाता है, कामक्रोधादिक वातपित्तादिककार जलताहै, जैसी जैसी भावना होतीहै, तैसा तैसा कर्म करता है, तिसकर्मकी भावनासाथ मिला हुआ भटकताहै, जैसे खंभाणीकरि चलाया पत्थर चला जाता है, तैसे कर्मवासनाका प्रेरा जीव भ्रमताहै, जैसे रथपर आरूढ होकर रथी चलता है, तैसे आत्मा मन अरु प्राण कर्मको दृढ कारकै चलता है। हे मुनीश्वर ! चेतनही जड़.दृश्यको अंगीकार करकै जीवत्वभावको प्राप्त होता है, मन प्राणरूपी रथपर चढकारे पदार्थकी भावनाते नानाप्रका- रके भेदको प्राप्त हुएकी नाईं स्थित होता है, जैसे जलही तरंगभावको प्राप्त होता है, तैसे चेतन नानाप्रकार होकार स्थित होता है, सो यह जीवकला आत्माकी सत्ताको पायकर वृत्तिविषे फुरणरूप होनी है जैसे सूर्यकी सत्ताको पायकारे नेत्र रूपको ग्रहण करते हैं, तैसे परमात्माकी सत्ता पायकारि जीव वृत्तिविषे फुरता हैं, परमात्मा चितुतत्त्वविचे जो स्थित है, तिसकरि फुरणरूप जीवता है, जैसे घरविषे दीपक होता है, तब प्रकाश होता है, दीपकविना प्रकाश नहीं होता, अपने स्वरूपको भुलायकरि जो जीव दृश्यकी ओर लगाई, इस कारणते आधिव्याधिकार दुःखी होता है, जैसे कमल डोंडीसाथ लगता है, तब भंवरे आनि स्थित होते हैं, तैसे जब जीव दृश्यकीओर लगताहै, तब दुःख आनि स्थित होते हैं, तिसकार जीव दीन हो जाताहै, जैसे जल तरंगभावको प्राप्त होता है। जैसे चुराण अपनी क्रियाकार आप बंधायमान होती है, जैसे बालक अपने परछाईंको देखकर आपही अविचारते भय पाता है, तैसे अपने स्वरूपके प्रमाकरिके आपही दुःख पाता है, अरु दीनताको प्राप्त होता है ॥ हे मुनीश्वर ! चिच्छक्ति सर्वगत अपना आप है, तिसकी अभावना कारकै दीनताको प्राप्त हुअा है, जैसे सूर्य बादलकार आच्छादितहोजाता है, तैसे मूढताकारकै आत्माका आवरण हुआ है,जब प्राणका अभ्यास करै, तब जड़ता निवृत्त होवे, अपना आप आत्मस्मरण होवे, जिनकी वासना निर्मल भई है, हृद्यते दूर नहीं होती सो स्थिर हुई एकरूप हो - जाती है, तब जीव जीवन्मुक्त होकर चिरपर्यंत जीवताहै, हृदयकमलविर्षे