पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

योगवासिष्ठ । प्राणोंको रोकिकरि शांतिको प्राप्त होता है, जैसे काष्ठ लोष्ट होता है, तैसे देह गिर पडती है, तब पुर्यष्टका आकाशविषे लीन हो जाती है, जैसे आकाशविर्षे पवन लीन होता है, तैसे तिसका मन पुर्यष्टकातहीही लीन हो जाती है । हे सुनीश्वर ! जिनकी वासना शुद्ध नहीं भई, सो मृत्युकालविषे तिनक्की पुर्यष्टका आकाशविषे स्थित होती है, तिसके अनंतर बार फुर आती हैं, वासनाके अनुसार स्वर्गनरकको देखने लगता है, जब शरीर भनपवनते रहित हुआ, तब शून्यरूप हो जाताहै। जैसे पुरुष घरको त्यागिकार दूर जाय रहताहै, तैसे शरीरको त्यागिकार मन अरु प्राण अपर ठौर जाते रहते हैं, तब शरीर शून्य हो जाता है। हे मुनीश्वर । चिसत्ता सर्वत्र है, परंतु जहाँ जीव पुर्यष्टका होतीहै, तहाँ भासती है, चेतनताका अनुभव होता है, अपर ठौर नहीं होता ॥ हे। मुनीश्वर ! जब यह जीव शरीरको त्यागता है, तब पंच तन्मात्राको ग्रहण कारकै संग ले जाता है, जहां इसकी वासना होती हैं, तहाँ जाये प्राप्त होता है, तब प्रथम इसका अंतवाहक शरीर होता है, बहुरि दृश्यके दृढ अभ्यासकार स्थूलभावको प्राप्त हो जाताहै, अंतवाहकता विस्मरण हो जाती है, जैसे स्वप्नविपे भ्रमकार स्थूल आकार देखता है, मोहमोह कारिकै मरता है, तब अपनेसाथ स्थूल आकार देखता है, बहुरि स्थूल देहविषे अहंप्रतीति करता है, तिससे मिलकर क्रिया करता है, तब असत्यको सत्य जानता है, अरु सत्यको असत्य जानता है, इसप्रकार भ्रमको प्राप्त होता है, जब सर्वगत चिदंशकार जीव मन होता है, तब जगत्भावको प्राप्त होता है, जब, देहसों पुर्याएका निकसती है, तब आकाशविषे जाय लीन होती है, तब देह ऊरनेते रहित होती है, तिसको मृतक कहते हैं, अपने स्वरूपशक्तिको विस्मरण कारकै जर्जरीभावको प्राप्त होता है, जब जीवशक्ति हृदयकमलविपे मूच्छित होती हैं, प्राण रोके जाते हैं, तब यह मृतक होता है, बहुरि जन्म लेता है, बहुरि मारि जाता है ॥ हे मुनीश्वर ! जैसे वृक्षसाथ पत्र लगते, काल पायकार नष्ट हो जाते हैं, बहुरि नूतन लगते हैं, तैसे यह जीव शरीरको धारता है। वह नष्ट हो जाता है, बहुरि अपर शरीर धारता है, वह भी नष्ट हो