पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०७

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(९८८) योगवासिष्ठ । जगतरूप हो भासती है । हे मुनीश्वर ! यह जो कारणकार्य विकाररूप- जगत् भासता है, सो असम्यक् दृष्टिकारे भासता है, जैसे जलविष तरंग भासते हैं, सो जलरूप हैं, जलते इतर कछु नहीं, जैसे शशेके सींग असत हैं जैसे जलविषे द्वैत तरंगकलना असत् है, अज्ञानकरिकै भासते हैं, तैसे आत्माविषे अज्ञानकरिके जगत् भासता है, जैसे द्रवताकरिकै जलही तरंगरूप हो भासता है, तैसे फुरणेकरि आत्मतत्त्व जगतरूप हो भासता है, अपर द्वैत कछु नहीं, चेतनरूपी वल्ली पसरी हैं, तिसविषे पत्र फूल फल एकहीरूप हैं, जैसे एक बल्ली अनेकरूप हो भासती है, तैसे एकही चेतन अहं त्वं देश काल आदिक विकार होकर भासता है, सो वही रूप है ॥ हे मुनीश्वर जब सबही चेतन है, तब तेरे प्रश्नका अवसर कहाँ होवे, देशकालक्रिया नीति आदिक जोशक्ति पदार्थ हैं, सो एकही चिदात्मा है, जैसे जलविषे जब इवता होती है, तब तरंगरूप हो भासता है, तिसका नाम तरंग होता हैं, तैसे ब्रह्मविषे जगत् फुरता है, तब अहं त्वं आदिक नानाप्रकारके नाम होते हैं, परम ब्रह्म शिव परमात्मा चेतनसत्ता द्वैत अद्वैत आदिक नाम भी ऊरणेकारकै कहते हैं, जो इन नामोंते अतीत है, सो वाणीका विषय नहीं, ऐसा निर्विकल्प निर्विषय तत्त्व है, सो सदा अपने आपविषे स्थित है, यह जगत् जो कछु भासता है, सो भी वही चेतनतत्त्व है, जैसे वल्ली फूल पत्र होकार पसरती है, तैसे चेतन सर्वरूप होकार पसरता है, सो वहीरूप है ॥ हे मुनीश्वर ! महाचेतनविषे जब किंचन होता है, तब जीवरूप होकार स्थित होता है, आगे द्वैतकलनाको देखता है, जैसे स्वप्नविषे अपना स्वरूप त्यागिकर अपर परिच्छिन्न वपुको धारता है, अरु आगे द्वैत- रूप जगत्को देखता है; जब जागता है, तब अपने अद्वैतरूपको देखता है परंतु जागेविना भी द्वैत कछु हुआ नहीं, तैसे यह जाग्रत् जगत् भी कछु हुआ नहीं, भ्रमकार भासता है, जब यह जीव अपने वास्तव स्वरूपकी ओर सावधान होता है, तब तिसके अभ्यासकार वहीरूप हो जाता है ॥ हे मुनीश्वर ! इस जीवका जो आदि वपु है, सो अंतवाहक है, संकल्पही तिसका रूप होता है, जब तिसविषे अहं-