पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/११०

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ईश्वरोपाख्याने परमेश्वरोपदेशवर्णन-निर्वाणपकरण ६. (९९१) त्रयस्त्रिशत्तमः सर्गः ३३. ईश्वरोपाख्याने परमेश्वरोपदेशवर्णनम् । ईश्वर उवाच ॥ हे मुनीश्वर! देव निरंतर स्थित है, द्वैत अरु ऐकपदते रहित है, अरु द्वैत एक संयुक्त भी वही है, संकल्पसाथ मिलकर चेतन- रूप संसारको प्राप्त भया है, अरु जो संकल्पमलते रहित है, सो संसारते रहित है, जब ऐसे जानता है, कि मैं हौं, तब इसी संकल्पकार बंधमान होता है, जब इसके भावते मुक्त होता है, तब सुखदुःखका अभाव हो जाता है, शुद्ध निरंजन एक सत्ता सर्वात्मा आकाशवत् होता है, इसीका नाम मुक्ति है, आकाशवत् व्यापकब्रह्म होता है। वसिष्ठ उवाच॥ हे प्रभो ! जब मनविषे मन क्षीण होता है,अरु इंद्रियां मनविषे लीन होतीहैं, द्वितीय : अरु तृतीय पद किसीकी नाईं शेष रहता है, जो महासत्ता आत्मसत्ता सर्वको लीन करता है, सो किसकी नाई है ? ॥ ईश्वर उवाच ॥ हे। मुनीश्वर ! मनकार जब मन छेदता है, इंद्रियां जिसके अंग हैं, विचार करिकै अथवा अपर उपासना कारकै जब आत्मबोध इसको प्राप्तं होता है, तब द्वैत एककी कल्पना नष्ट हो जाती है, जगज्जालकी सत्यता नष्ट हो जाती है, तिसके पाछे जो शेष रहता है, सो आत्मतत्त्व प्रकाशता है, जैसे भूने बीजते अंकुर नहीं उपजता, तैसे जब मन उपशम होता है, तब तिसविषे जगतृसत्ताका अभाव हो जाता है, चेतनसत्ता जो है, सो चित्त- सत्ताको भक्षणकार लेती है, जब मनरूपी मेघकी सत्ता नष्ट होती है, तब शरत्कालके आकाशवत् निर्मल आत्मसत्ता भासती है, चित्तकी चपलता मिटि जाती है, तब परमनिर्मल पावन चिन्मात्रतत्त्व प्राप्त होता है, अपर द्वैत एक भाव अभावरूपी संसारकल्पना मिटि जाती है, सम- सत्तारूप तत्त्व जो सर्वव्यापक है, अरु संसारसमुद्रते पार करनेहारा है, सो प्राप्त होता है, सुषुप्तिकी नाईं बोध निर्भय होजाता है, शांतिरूप आत्माको पाइकार शाँतिरूप हो जाता है । हे मुनीश्वर । मनकी क्षीण- ताका प्रथम पद यह तुझको कहा है, अब द्वितीय पद सुन ॥ हे सुनी- श्वर ! जब यह चित्तशक्ति मनके मननते मुक्त होती है, कैसी मननवृत्ति