पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/११२

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ईश्वरौपाख्याने देवनिर्णयवर्णन--निर्वाणप्रकरण ६. (९९३ } नहीं, जैसे जलअरु तरंगविषे भेद कछु नहीं, तैसे ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, सम सत्य सत्ता शिव शांतिरूप है, अरु सर्व वाणीके विलासते अतीत है, इसकी चतुर्मात्रा हैं, तुरीया शांत परम है। वाल्मीकिरुवाच।। हे भारद्वाज ! इसप्रकार जब ईश्वरने कहा, अरु परमशाँतिरूप आत्म- तत्त्वका प्रसंग वसिष्ठजीने श्रवण किया, तब दोनोंकी वृत्ति आत्मतत्त्व- विषे स्थित हो गई, अरु तूष्णीं हो रहे, मानो मूर्सि लिख छोड़ी है, एक मुहूर्त्तपर्यंत चित्तकी वृत्ति ऐसे रही, बटुंरि ईश्वर जागा ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणकरणे ईश्वरोपाख्याने परमेश्वरो- पदेशवर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशत्तमः सर्गः ॥ ३३॥ चतुत्रिंशत्तमः सर्गः ३४. ईश्वरोपाख्याने देवनिर्णयवर्णनम् । वाल्मीकिरुवाच ॥ एक मुहूर्त उपरांत सदाशिवजी तीनों नेत्रोंकों खोलत भये जैसे पृथ्वीरूपी डब्बेते सूर्य निकसे, तैसे नेत्र निकसे, जैसे द्वादश सूर्यको प्रकाश इकट्ठा हो, तैसे नेत्रका प्रकाश हुआ, अरु देखत भया, कि वसिष्ठजीके नेत्र हुँदै हुए हैं। तब कहा हे मुनीश्वर ! जागौ, अब नेत्र काहेको मुँदि लिये हैं, जो कछु देखना था सो तौ देखा है, अब समाधिविषे जुडनेका श्रम किस निमित्त करते हौ, तुमसारखे तत्त्ववे- ताको हेयोपादेय किसीविषे नहीं होता, तू जैसा बुद्धिमान है, तैसाहीहै। तू आत्मदर्शी है, जो कछु पानेयोग्य था, सो पायाहै, जाननेयोग्य था, सो जाना है, अरु बालकके बोधनिमित्त जो तुम सुझते पूछा सो मैंने कहा है, अब तुमको तूष्णासाथ क्या प्रयोजन है ॥ हे रामजी । इसप्र- कार कहकर मेरे अंतर प्रवेश कारकै चित्तकी वृत्तिसाथ जगाया, जब मैं जागा, तब बहुरि ईश्वर कहत भया । हे वसिष्ठजी ! इस शरीरकी, क्रि- याका कारण प्राणस्पंद है, प्राणोंकारे शरीरकी चेष्टा होती, तिसविर्षे आत्मा उदासीनकी नाईं स्थित है, न कछु करता है, न भोगता है, जब इस जीवको अपने स्वरूपका प्रमाद होताहै,तब देहविषे अभिमान होताहै,