पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/११३

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(९९४) योगवासिष्ठ । किया करता आपको मानता है, बहुरि भौगता मानता है, इसकरि दुःख पाताहै, इस लोक परलोकविषे भटकता है, अरु जब आत्मविचार उप- जता है, तब आत्माका अभ्यास होता है, देह अभिमान मिटि जाता है, दुःखते मुक्त होताहै, शरीरके नष्ट हुए आत्माका नाश नहीं होता, अरु शरीर जो चेतन होकरि फुरता है, सो प्राणोंकरि फुरता है, जब बीचते प्राण निकसि जाते हैं, तब शरीर भूकजड़प हो जाता है, अरु जो चलावनेहारी अरु पवित्र करनेहारी संवित्शक्ति, सो आकाशते भी सूक्ष्म है, वह शरीरके नाश हुए नाश नहीं होती, जब नाश नहीं होती तो नाश झा भ्रम कैसे हो ॥ हे मुनीश्वर ! आत्मतत्त्व ब्रह्मसत्ता सर्वत्र है। परंतु भासजी तहां है, जहां सात्त्विक गुग का अंश मन होताहै,अरु प्राण होते, मन अरु प्राणों सहित देहविषे भासती है, जैसे निर्मल दर्पणविषे सुखका प्रतिबिंब भासता है, अरु आदर्श मलिन होता है, तब मुख वियपान भी होता है, परंतु नहीं भासताहै, तैसे मन अरु प्राण जब देह- विषे होने हैं, तब आत्मा भासता हैं, जब मन अरु प्राण निकसिजातेहैं, तर मलि। शरीरविषे आत्मसत्ता नहीं भासती ।। हे मुनीश्वर ! आत्म- सत्ता सब ठौर पूर्ण है, परंतु भासती नहीं, जब तिसका अभ्यास होवे, तब सवत्मिरूप होकार भासती हैं, सर्व कलनाते रहित शुद्ध शिवरूप, सर्वकी सत्तारूप वही है, विष्णु भी वही हैं. शिव भी वही है, ब्रह्मा भी वही है, देवताजातभी वही है, अग्नि, वायु,चंद्रमा, सूर्यादिक सब जगत्का आदि वयु वही है, सो एक देव है, शुद्ध चेतनरूप है, सर्व देवनका देव है, अपर सब तिसके टहलुए हैं, अरु सब तिसके चित्त उल्लास हैं ॥ हे मुनीश्वर ! हम जो इस जगतविवे बड़े ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र हैं, सो उसही तत्त्वते प्रगट भए हैं, जैसे अग्निते चिनगारे उपजते हैं, जैसे समुद्रते तरंग प्रगट होते, तैसे इम तिसते प्रगट भये हैं, यह अविद्याभी तिसते प्रगट भई है, अरु अनेक शाखाको प्राप्त भई है, देव अदेव वेद अरु वेदके अर्थ अरु जीव सब उस अविद्याकी जटा हैं, अरु अनंतभावको प्राप्त भई है, बहुरि बहुरि उपजती अरु मिटती है, देश काल पृथिव्यादिक सब उसीकर संपन्न, परंतु सर्वकी सत्तारूप वही आत्मा देव है. ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र हम जो हैं,