पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/११७

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(९९८) योगवासिष्ठ । है, सदाउदित प्रकाशरूप है, एकरस देव स्थित है, अरु नीति आदिक शक्ति भी तिसते भिन्न नहीं, वहीरूप है, ताते देवही जान, अपर द्वैत कछु नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ईश्वरोपाख्याने नीति- नृत्यवर्णन -नाम पत्रिंशत्तमः सर्गः ।। ३६ ॥ सप्तत्रिंशत्तमः सर्गः ३७. ईश्वरोपाख्यानेऽन्तर्बाह्यपूजावर्णनम् ।। ईश्वर उवाच ॥ हे मुनीश्वर | जो एक देव परमात्मा है, सो संतकार पूजने योग्य है, चिन्मात्र अनुभव आत्मा सर्ग है, घट पट गादी कंद बाँतर आदिक सर्वत्रिषे वह स्थित है, ब्रह्मा इंद्रादिक देवता अपर जीव सबके अंतर बाहर वही स्थित है, सर्वात्मा शतिरूप देवताका पूजन दोप्रकारका होता है सो सुन, इष्ट देवताका पूजन ध्यान हैं, अरु ध्यान है सो पूजन है, त्रिभुवनका आधारभूत आत्मा है, तिसको ध्यान कार पूजा करौ, जहाँ जहाँ मन जावै, तहाँ तहाँ चिद्रूप आत्माको करौ, सबका प्रकाशक आत्माही है, सो चिद्रूप अनुभव कारकै अंतर । कारक सिद्ध है; सो सबका साररूप है, अरु सबका आश्रयरूप है, तिनका जो विरारूप है, सो सुन,तिसको जानिकार पूजन करौ, बाह्य कैसा है, अनंत है, पारावारते रहित है, परमाकाश है, सो उसकी ग्रीवा है, अरु अनंत पाताल उसके चरण हैं, अनंत दिशा तिनकी भुजा हैं, सर्वप्रकाश उसके शस्त्र हैं, हृदयकोश कोणविषे स्थित है, ब्रह्मांडसमू- होंको परंपरा प्रकाशना है, परमाकाश पारअपाररूप है. ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादि देवता जीव उसके रोमावली, त्रिलोकीविषे जो देहरूपी यंत्र है, तिनविष इच्छादिक शक्तिरूप सूत्र व्यापा है, तिसकार सब चेष्टा करते हैं, सो देव एकही है, अरु अनंत है, अरु सत्तामात्र स्वरूप है, सब जगजाल तिसका निवृत्त है, अरु काल तिनका द्वारपाल है, पर्वता- दिक ब्रह्मांड जगत् तिरके देहविषे किसी कोणमें स्थित है, तिस देवकी. चिंतना करो, बहुरि कैसा देव है, सहस्र जिनके चरण हैं, अरु सहस्त्र