पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/११९

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(१०००) यौगवासिष्ठ। जो दिनपर्यंत ध्यान करै, सो असंख्य फलको पावै ॥ हे मुनीश्वर । यह परम योग है, अरु यही , परम क्रिया हैं, यही परम प्रयो- जन है ॥ हे मुनीश्वर ! दोनों पूजा मैं तुझको कही हैं, जिसको यह परम पूजा प्राप्त होती हैं, सो परमपको प्राप्त होता है, सर्व देवता तिसको नमस्कार करते हैं, सर्व करके वह पुरुष मेरुवत् पूजने योग्य होता है। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ईश्वरोपाख्यानेऽन्तर्बाह्य- पूजावर्णनं नाम सप्तत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ ३७॥ अष्टात्रिंशत्तमः सर्गः ३८. देवार्चनाविधानवर्णनम् । ईश्वर उवाच ॥ है मुनीश्वर ! अब अग्रेतरका पूजन तू श्रवण कर, जो सर्वत्र पवित्र करनेहारेको भी पवित्र करता है, अरु सर्व तम अज्ञानका नाशकरता है, सो आत्मपूजन मैं तुझको कहता हौं; कैसा पूजन है जो सर्व प्रकार कारकै सर्वदा कालविषे तिस देवका पूजन होता है, व्यवधान कबहूँ नहीं पडता; चलते, बैठते, जागते, सोवते, सर्वव्यवहारविषे नित्य ध्यानमैं रहता हैं । हे मुनीश्वर | इस संसारविषे नित्य स्थित संवितरूप चिन्मात्र है, तिसका पूजन करौ, जो सर्व प्रत्ययका कर्ताहै,सदा अनुभ- वकारे प्रकाशता है, तिसका आपकार आप पूजन कर, सो तू है,उठता चलता खाता पीता जेते कछु बाह्य अर्थ हैं, त्याग करता ग्रहण करता भोगको भोगता; तिन सबको करता भी देवकी पूजा कर ॥ हे सुनीश्वर । शरीरविषे जो शिवलिंग है; चिह्नते रहित लिंग जो बोधरूपचिह्न है, सो देव है, यथाप्राप्तविषे सम रहनासो तिस देवका पूजनहै,यथाप्राप्तके सम- भावविषे स्नानकारिकै शुद्ध होकार बोधरूप लिंगका पूजन करहु जो कछु आनि प्राप्त होवे, तिसविषे रागद्वेषते रहित होनासर्वदा साक्षीरूपअनु- भवविषे स्थित रहना यही तिसका पूजन है ॥हे मुनीश्वर! सूर्य केभुवन आकाशविषे वही सूर्य होकर प्रकाशता है, चंद्रमाके भुवनविषे वही - चंद्रमा होकार स्थित होता है, इनते आदि लेकर जो पदार्थ के समूह हैं।