पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२

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परमात्मने नमः।
अथ श्रीयोगवासिष्ठे
षष्ठं निर्वाणप्रकरणं प्रारभ्यते।
(पूर्वार्ध्दम्)
प्रथमः सर्गः १.


दिवसरात्रिव्यापारवर्णनम्।

वाल्मीकि रुवाच॥ हे भारद्वाज! उपशमप्रकरणके अनंतर तू निर्वाणप्रकरण सुन, जिसके जाननेकरि तू निर्वाणपदको प्राप्त होवैगा, बडे उत्तम वचन मुनिनायकने रामजी प्रति कहे हैं, सो रामजी कैसे हैं, जो मुनीश्वरने वाक्य अर्थ कहा है, तिसविषे सब ओरते मनको खैंचिकरि जिसने स्थापित किया हैं, अरु और भी जो राजालोक हैं, सो सब निस्पंद हो रहे हैं, मानो कागजके ऊपर मूर्तियां लिख छोडी हैं, ऐसे होकरि वसिष्ठजीके वचनोंको विचारते हैं, अरु जेते राजकुमार हैं, सो विचारते हैं अरु कंठोंको हिलाते हैं, शिर अरु भुजाको फेरते हैं, अरु विस्मयको प्राप्त हुवे हैं, तिसकरि प्रसन्नताको प्राप्त हुवे हैं, यह जगत् सत्य जानकर विचरते थे सो हैही नहीं, ऐसे आश्चर्यविषे आश्चर्यको प्राप्त हुवे हैं, तब दिनका चतुर्थ भाग अन्त रहा, अरु सूर्य अस्त हुआ मानो वसिष्ठजीके वचन सुनिकरि इसको फल लगा है, सब तेज क्षीण होगया है, अरु शीतलता आनि प्राप्त भई है, अरु स्वर्गते जो सिद्ध देवता आये थे, तिनके गलेविषे मंदार आदिक वृक्षोंके फूल थे, पवनके चलनेकरि सब स्थान सुगंधित होत भये, अरु भ्रमर फूलोंपर गुंजारव शब्द करें हैं, अरु झरोंखोंके मार्गसों सूर्य की किरणें आवैं हैं, तिनकरि कमलफूल सूर्यमुखी राजा अरु देवताओंके शीश ऊपर थे, सो सूखके