पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२१

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(१००३ ) योगवासिष्ठ । पूजा करता है, सो परमात्मादेवको प्राप्त होताहै,तब दीनता आदिक क्लैश सब नष्ट हो जाते हैं, अनिष्टकी प्राप्तिविषेशोक नहीं उपजता, इष्टकी प्रा- प्तिविषे हर्ष नहीं उपजता,न तोषवान होता है, न कोपवान होता है, विष- यकी प्राप्तिकार न तृप्ति मानता है, इनके वियोगकार न खेद मानता है, अप्राप्तकी वांछा करताहै, न प्राप्तके त्यागकी इच्छा करताहे सर्व पदार्थविषे समभाव रहता है, ऐसा जो पुरुष हैं सो देवका परमउपासक है, ग्रह- णत्यागते रहित सबविषे तुल्य है, भेदभावको नहीं प्राप्त होता, सो देवका अर्चन उत्तम है। हे मुनीश्वर ! चेतनतत्त्व देव मैं तुझको कहा, जो इसी देहविये स्थितहै, जोप्राप्त वस्तु हो, तिसको अर्चन करणी, सव तिसीले आगे रखणी, सबका साक्षी आत्माको देखना, किसीते वेदवान् न होना, अहंप्रतीति तिसविषे रखनी,इतर दृश्यकी भावना नहीं करनी,यही देवकी अर्चना है ॥ हे मुनीश्वर ! जो कछु अनि प्राप्त हो, तिसविधे यत्नविना तुल्य रहना, जोभक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य अनि प्र त हो, सो देवके आगे रखना, ग्रहणत्यगकी अद्धि निवि न नों, सो देवका पूजन है, सर्व पदार्थकी प्राप्तिवि देवी ५ । ' इसकरि अनिष्ट भी इष्ट हो जाता है, मृत्यु नै तो देवकी पू}, जीवना आवै तब देवकी पूजा, दारिद्र आवै तब देवी पूजा, राज्य प्राप्त होवै तौ देवकी पूजा, विचित्र नानाप्रङ्गरकी चेष्टा कानी, सो सव देवके आगे पुष्प हैं, रागद्वेषवि सम र सो सताकारि देवकी पूजाहै, संतके हृदयकी रहनेहारी जो है मैत्री, जो सम्पूर्ण विश्वका मित्र होना, तिस मित्रता कारकै देवका पूजन हैं, भोगकार त्यागकर रोगकार जोकछु आनि प्राप्त होवे, तिसकार देवका पूजन करु, हंता होउ, अर्हता होउ, युक्ति करु, अयुक्ति करु, हेयोपादेयते रहित होकार तिस देवका पूजन करु, जो नष्ट हुआ सो हुआ; जो प्राप्त हुआ सो हुआ दोनों विधे निर्विकार रहना, इसकारि देवका अर्चन करु, यह भोग आपातरमणीय हैं, होते भी हैं, नष्ट भी हो जाते हैं, इनकी इच्छा न करनी, सदा संतुष्ट रहना, जैसे आनि प्राप्त होवे, तिसविरे रागद्वेषते रहित होना सो देवका अर्चन है ॥ हे मुनीश्वर ! जो कछु प्रारब्धकरिकै आनि प्राप्त हो