देवार्चनाविधानवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१००१) तिसकार आत्माका अर्चन करौ, इच्छाअनिच्छाको त्यागकर जो प्राप्त होवे, तिसकरि देवका अर्चन करौ ॥ हे मुनीश्वर ! ज्ञानवान् न किसीकी इच्छा करता है, न त्याग करता है, जो अनिच्छित आनि प्राप्त होवै तिसको भोगता है, जैसे समुद्रविषे नदी जय प्राप्त होती, तिनकार न कछु हर्ष करता है, न शोक करता है, तैसे ज्ञानवान् इष्ट अनिष्टकी प्राप्ति विषे रागद्वेषते रहित यथाप्राप्तको भोगता है, सो देवका पूजन हैं, देश काल क्रिया शुभ अथवा अशुभ प्राप्त होवे, तिसविषे संसरणविकारको प्राप्त न होना, सो देवकी अर्चनाई, जब द्रव्य अनर्थरूप होवे, तब भी समरससाथ मिला हुआ अमृत हो जाता है, जैसे घट्स स्वाद है, सो खडसे मिले हुवे मधुर हो जाते हैं, तेसे अनर्थरूपी रस समरससे मिले हुए अमृत हो जाते हैं, खेद नहीं करते, अनंतरूप हो जाते हैं,चंद्रमाकी नाईं सब भावना अमृतमय हो जाती हैं, जैसे आकाश निलंप है, तसे समताभाव कारकै चित्त रागद्वेषते रहित निर्मल हो जाता है, इष्टाको दृश्यसे मिला न देखना, साक्षीरूप रहना, सो देवकी अर्चना है, जैसे पत्थरकी शिला निस्पंद होती है, तसे विकल्पते रहित चित्त अचलहोता है, सो देवकी अर्चना है । हे मुनीश्वर ! अंतते आकाशवत् अभंग रहना, अरु बाह्य प्रकृन आचारविष रहना किपीका सेग अंतरस्पर्श न करै, सदा समभाव विज्ञानकार पूर्ण रहा, सो देवका उपासन होना, जिसके हृदयरूपी आकाशते अज्ञानरूपी भेष नष्ट हो गया है, तिसको स्वप्नविषे भी विकार नहीं प्राप्त होता, अरु जिसके हृदयरूपी आकाशते अहंतारूपी कुहिड शांत हो गई है सो शरत्कालके आकाशवत उज्वल होता है ॥ हे मुनीश्वर ! जिसको समभाव प्राप्त भया है तिसकरि देवको पाया है, सो पुरुष ऐसा हो जाता है, जैसा नूतन बालक रागद्वेषते रहित होता है, जीवरूपी चेतनाको उल्लंघकारे परम चेतनतत्त्वको प्राप्त होता है, सकल इच्छाभ्रमते रहित सुख दुःख भ्रमते मुक्त शरीरका नायक तिधित होता है सो देवअर्चना है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निव- याप्रकरणे देवार्चनाविधानवर्णने नाम अष्टात्रिंशत्तमः सर्गः ॥ ३८ ॥