पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२३

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| ११००४ ) योगवासिष्ठ । एकोनचत्वारिंशत्तमः सर्गः ३९. ईश्वरोपाख्याने देवपूजावर्णनम् । ईश्वर उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! जैसी कामना होवे, जो कछुआरंभ करें। अथवा न करै,सो अपने आपकार चिन्मात्र संवित् तत्त्वकी अर्चना कर, इसकार देव प्रसन्न होता है, जब देव प्रसन्न हुआ तब प्रगट होता है, जब उसको पाया, अरु स्थित भया, तब रागद्वेषादिक शब्दको अर्थ नहीं पाता, जैसे अग्निविषे बर्फका कणका नहीं पाता, तैसे इसविषे रागद्वे- पादिक नहीं पाता, ताते तिस देवकी अर्चना करनी योग्य है, जो राज्य आनि प्राप्त होवै, अथवा दारिद्य आनि प्राप्त होवै, सुख दुःख आनि प्राप्त होवै, तिसविषे सम रहना, सो देवअर्चना करनी ॥ हे मुनीश्वर ! शुद्ध चिन्माउसों अमादी न होना, इसीका नाम अर्चना हैं; जेता कछु घट पट आदिक जगत् भासता है, सो सब आत्मारूप हैं, तिसते इतर कछु नहीं, सो आत्मा शिव शांतिरूप अनाभास है, एकही प्रकाशरूप हैं, संपूर्ण जगत् प्रतीतिमात्र है, आत्माते इतर कछु हैनु आभास नहीं, सर्वात्मारूप अद्वैत तत्त्व जब भासै तब तिलविY कुंभ जानता हैं, जो बड़ा आश्चर्य है, घट घट आदिक सब वही हैं, अपर तौ कछु नहीं ॥ हे मुनीश्वर ! यल्ल उर्वात्मा अनंतरूप शिवतत्वहै, जि- को ऐसे निश्चय प्राप्त भया है, तिसने देवकी पूजा जानी है, ६६ एट आदिक जो पदार्थ हैं, पूज्य पूजा पूजक भाव सो सड़ नए हैं, लिल देव आत्माविषे कछु भेदभाव नहीं ॥ हे मुनीश्वर ! अव सर्वशक्ति अनंतरूप है, तीनों जगविषे तिसते भिन्न कछु नहीं, निर्मल प्रज्ञा संवितरूप आत्मा स्थित है, हमको तौ ईश्वर देवने इतर कछु नहीं थः- ता, सर्वत्र सर्व प्रकार सर्वात्मा संपूर्ण दृष्ट अाता है, अरु जेनको दे कालके परिच्छेदसहित ईश्वर भासता है, सो बारे उदेशझे ए . वह ज्ञानबंध नीच हैं, तिनकी दृष्टिको राशि भी है: ३. लेहु, जो मैं तुझको कही है, तिसका स्वस्थ वीतराग निरामय हो - यथाप्रारब्ध जो कछु सुख दुःख आनि प्राप्त हो, वेदने दित होकार ३३ -