पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२४

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जगन्मिथ्यात्वप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१००५) तिस देवका अर्चन करु, तब शांतिको प्राप्त होवै ॥ हे मुनीश्वर ! तिस देवकी मर्वप्रकार सर्वत्मा झरिकै भावना करु यही तिसका पूजन है, जो वृत्ति सदा अनुभक्रूपविष स्थित रहै, अरू यथाप्राप्तविषे खेदते रहित विचरना यही देवकी अर्चना है, जैसे स्फटिकके मंदिरविषे प्रतिबिंब भासते हैं, सो कछु नहीं, निष्कलंक स्फटिक है, तैसे सर्व ओरते रहित जन्मादिक दुःखते रहित निष्कलंक आत्मा है, तिसकी प्राप्तिते तेरेविषे कलंक जन्मादिक दुःख कछु न रहेंगे॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ईश्वरोपाख्याने देवपूजाविचारो नामैकोनचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ ३९ ॥ चत्वारिंशत्तमः सर्गः ४०. जगन्मिथ्यात्वप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे देव ! शिव किसको कहते हैं, अरु ब्रह्म किसको कहते हैं, आत्मा किसको कहते हैं, अरु परमात्मा किसको कहते हैं, तत् सत् किसको कहते हैं, निष्किचन शून्य विज्ञान किसको कहते हैं, इत्यादिक भेद संज्ञा किसनिमित्त हुई है, सो कृपा करके कहौ ॥ ईश्वर उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! जब सबका अभाव होता है, तब अनादि अनंत अनाभास सत्तामात्र शेष रहता है, जो इंद्रियोंका विषय नहीं, तिसको निष्किचन कहतेहैं।वसिष्ठ उवाच ॥ हे ईश्वर ! जो इंद्रियां बुद्धि आदिकका विषय नहीं, तिसका पाना किसकार होता हैं ? ।। ईश्वर उवाच ॥ हे मुनीश्वर | जो मुमुक्षु है, अरु वेद आश्रयकार संयुक्त सात्त्विकी वृत्ति जिसको प्राप्त हुई है, तिसको सात्त्विकीरूप जो गुरु शास्त्र नामी विद्या प्राप्त होती है, तिसकार अविद्याका भाग नष्ट हो जाता है, अरु आत्मतत्त्व प्रकाशि आता है, जैसे साबुन कारकै धोबी वस्त्रका मैल उतारता है, तैसे शुरू शास्त्र अविद्याका सात्त्विकी भाग अविद्याको दूर करते हैं, जब केते कालते अविद्या नाश होती है, तब अपना आपहीकार देखता है, जैसे वायुकारे बादल दूर होते हैं, अरु नेत्रकारि सूर्य देखता है, जैसे किसीके हाथको स्याही लगै, सो मृत्तिका