पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२५

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| (१००६) यौगवासिष्ठ ।। जलकार धोयेते दूर हो जाती है, सो मैलकार मैल दूर होता है, तैसे अविद्याका सात्विक भाग गुरुशास्त्र सो अविद्याके आवरणको नष्ट करते हैं ॥ हे मुनीश्वर ! जब गुरुशास्त्रको मिलिकर विचार प्राप्त होता है, तब विचारकरि स्वरूपकी प्राप्ति होती हैं, अरु द्वैतभ्रम मिटि जाता है, सर्व आत्माही प्रकाशताहै, जब विचारद्वारा आत्मतत्त्वनिश्चय हुआ, कि सर्व आत्मा है, इतर कछु नहीं, ऐसा निश्चय जहाँ होता है, तहते अविद्या जाती रहती हैं। हे मुनीश्वर ! आत्माकी प्राप्तिविषे गुरुशास्त्र प्रत्यक्ष कारण नहीं, काहेते जो वस्तु जिनके क्षय हुएते पाये, सो तिनके विद्यमान हुए कैसे पाइये १ इंद्रियके समूहका नाम गुरु है, अरु ब्रह्म सर्व इंद्रियते अतीत है, इनकार कैसे चाइये १ अकारण है, परंतु कारण भी है, काहेते जो शुरुशाखके क्रम कारकै अज्ञानकी सिद्धता होती है, गुरुशास्त्रविना बोधकी सिद्धता नहीं होती, आत्मा निर्देश है, अरु अदृश्य है, तो भी शुरुशास्त्रकार पाता है। अरु न गुरुकर न शास्त्रकार पाता है । अपने आपहीकार आत्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है, जैसे अंधकारविर्षे पदार्थ होवे अरु दीपक प्रकाशकार देवै, सो दीपक- कार नहीं पाया, अपने आपकर पाया है, तैसे गुरुशास्त्र भी है, जब दीपक होवे, अरु नेत्र न हो, तब कैसे पाइये १ नेत्र होवे अरु दीपक न होवे, तौ भी नहीं पाता, जब दोनों होवें, तब पदार्थ पाता है, तैसे गुरुशास्त्र भी होवें, अरु अपना पुरुषार्थ तीक्ष्ण बुद्धि भी होवै, तब आत्मतत्त्व पाता है, अन्यथा नहीं पाता है, गुरु शास्त्र अरु शुद्ध बुद्धि शिष्यको तीनों ईकडे मिलते हैं, तब संसारके सुखदुःख दूर होते हैं, अरु आत्मपदकी प्राप्ति होती हैं, गुरुशास्त्र आवरण दूर करदेते हैं, तब आप- कार आपही पाता है, जैसे वायु बादलको दूर करता है, तब नेत्रकार सूर्य दीखता है, अब नामके भेद सुन॥ हे मुनीश्वर । जब बोधके वशते कर्मइंद्रियां, बुद्धिइंद्रियां क्षय हो जाती हैं, तिसके पाछे जो शेष रहता है, तिसका नाम संवित्तत्त्व आत्मसत्ता आदि नामकार कहाता है, जहां यह संपूर्ण नहीं इनकी वृत्ति भी नहीं तिसके पाछे जो शेष सत्ता रहती हैं सो आकाशते भी मुसुक्ष्म अरु निर्मल है, अनंत है, परम शून्यरूप है, जहाँ शुन्यका भी अभाव ६ ।। हे मुनीश्वरः । अब