पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२७

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। (१००८) योगवासिष्ठ । भृका जान, यही अंतवाहक देह है, तिसका आश्रय भई, वास्तवते कछु उपजा नहीं, परमात्मसत्ता अपने आपविषे फुरतीहै, जैसे जलविधे.जल, फुरता है, तैसे आत्मसत्ता अपने आपविषे फुरती है । हे मुनीश्वर ! संविदविषे जो संवेदन पृथकरूप होकार कुरै, सो निस्पंद कारकै जब स्वरूपको जाना, तब नष्ट हो जाती है, जैसे संकल्पका रचा नगर संकल्पके अभाव हुए अभाव हो जाता है, तैसे आत्माके ज्ञानते संवेद- नका अभाव हो जाता है । हे मुनीश्वर ! संवेदन तबलग भासता है, जबलग इसको जाना नहीं जानता तब है, संवेदनका अभाव हो जाता हैं, संविचविषे लीन हो जाती है, भिन्नसत्ता इसकी कछु नहीं रहती ॥ हे मुनीश्वर ! जो प्रथम अणु तन्मात्रा थी, सो भावनाके वशते स्थूल देहको प्राप्त भई, स्थूल देह होकार भासने लगी, आगे जैसे जैसे देश काल पदार्थकी भावना होती गई, तैसे तैसे भासने लगे, जैसे गंधर्वन- गर भासता है, जैसे स्वप्नपुर भासता है, जैसे भावनाके वशते यह पदार्थ भासने लगे हैं ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे भगवन् ! गंधर्वनगर अरु वर्म- धुरके समान इसको कैसे कहते हौ, यह जगत् तौ प्रत्यक्ष दिखाता है। ईश्वर उवाच ।। हे चुनीश्वर ! संसार दुःख इसको वासनाके वशते दीखता हैं, जो अविद्यमानविषे स्वरूपके प्रमाद कारकै विद्यमान बुद्धि हुई है, जगदके पदार्थको सत् जानिकरि जो वासना ऊरती है, तिस वासना- कार दुःख होता है । है मुनीश्वर ! यह जगत् अविद्यमान है, जैसे मृग- तृष्णाका जल असत्य होता है, तैसे यह जगत् असत्य है, तिसविषे वासना अरु वासक वासना करनेयोग्य तीनों वृथा हैं, जैसे मृगतृष्णाका जल पानकार तृप्त कोऊ नहीं होता. काहेते कि जलही असत् है, तैसे यह जगही असत है, इनके पदार्थकी वासना करनी वृथा है, ब्रह्माते आदि क्रमपर्यंत सब जगत् मिथ्यारूप है, वासना वासक वासना करने योग्य पदार्थ तिन्होंके अभाव हुए केवल आत्मतत्त्व रहता है, सब भ्रम शांत हो जाता है । हे मुनीश्वर ! यह जगव भ्रममात्र है, वास्तवते कछु नहीं, जैसे बालकको अज्ञानकार अपने परछाईंविषे वैताल भासता है, जब विचारकरि देखै तब वैतालका अभाव हो जाता है, तैसे