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योगवासिष्ठ।

वह जो आदि जीव है, सो कोऊ विष्णुरूप होकरि ब्रह्माको नाभिकम- लते उत्पन्न किया है, किसी सृष्टिविषे प्रथम ब्रह्मा हुआ है। विष्णु रुद्र तिसते हुए हैं, किसी सृष्टिविषे प्रथम रुद्र हुआ है, विष्णु ब्रह्मा तिसते, हुए हैं, चेतन आकाशविषे जैसा जैसा संकल्प फुरा है, तैसा होकरि स्थित भया है, आदि जीव उपजिकारि जिस जिस प्रकारका संकल्प किया है, तैसा होकरि स्थित भया है, वास्तवते सब असतरूप है, अज्ञानभ्रम करिकै हुआ है, जैसे परछाईंविषे वैताल भासता है, तैसे अज्ञानकारिकै सत् रूप हो भासता है, आदि पुरुषते लेकरि जो सृष्टि है, सो परमाकाशके एक निमेषते हुई है, अरु उन्मेषविषे लय हो जाती है, एक निमेषके प्रमादकरि कल्पके समूह व्यतीत हो जाते हैं, अरु परमाणुपरमाणुविषे सृष्टि फुरती है, कल्प अरु महाकल्प तिनविषे भासते हैं, कई सृष्टि परस्पर दीखती हैं, कई अन्योन्य अदृश्यरूप हैं, इसीप्रकार सृष्टि तिसकेस्पंदकलाविषे फुरी हैं, चमत्कार होता है, अरु जब स्पंदकला स्वरूपकी ओर आती हैं, तब लीन हो जाती है, जैसे स्वप्रका पर्वत जागेते लीन हो जाता है, तैसे जाग्रत्की सृष्टि अफ़ुर हुए लीन हो जाती है॥ हे मुनीश्वर! जीव जीव प्रति अपनी अपनी सृष्टि है, तिन सृष्टिको कोऊ देश काल रोक नहीं सकता, काहेते कि अपने अपने संकल्पविषे स्थित है, अरु आत्माका चमत्कार है, जैसा फुरना फुरता हैं, तैसा चमत्कार हो भासता है॥ हे मुनीश्वर! न कछु उपजा है, न कछु नाश होता है, स्वतः चेतनतत्त्व अपने आपविषे चमकता है, जैसे स्वप्ननगर उपजिकारि नष्ट हो जाते हैं, जैसे संकल्पका पहाड़ उपजिकरि मिटि जाता है, तैसे जगत उपजिकरि नष्ट हो जाता है, जैसे स्वप्न अरु संकल्प पहाड़को कोऊ रोक नहीं सकता, तैसे अपनी अपनी सृष्टिको देशकाल रोक नहीं सकता, काहेते कि, अपर ठौरविषे इनका सद्भाव नहीं, ताते यह जगत् अपने अपने कालविषे सतरूप है, आत्माविषे सद्भाव नहीं, संकल्परूप है॥ हे मुनीश्वर! जैसे आदितत्त्वते जीव ईश्वर फुरे हैं, तैसे कम फुरे हैं, रुद्रते लेकरि वृक्षपर्यंत सब एक क्षणविषे उसी तत्त्वते फुरि आये हैं, सुमेरु आदिक भी अपने स्थितिविषे सेकते हैं, अन्य अणुको नहीं रोक सकते काहेते कि, वहाँ