पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३०

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== = --- विश्रांत्यागमनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०११) हैही नहीं, ताते आत्माविषे सृष्टि,आभासरूप है॥हे मुनीश्वर ! इसप्रकार सब जगत् मायामात्र है, भावनाकार भासताहै, जब आत्माका अभ्यास होता है तब भेदकल्पना मिटि जाती है, केवल उपशमरूप शिवतत्त्व भासता है ॥ हे मुनीश्वर ! निमेषका जो समभाव है, तिसके अर्धभाग प्रमाद होनेकर नानाप्रकारका जगत् हो भासता है, सत् असत्रूप जगत् मनरूपी विश्वकर्मा बनाता है, आत्मतत्त्व न दूर है, न निकट है, न अध है, न उर्ध्व है, न पूर्व है, न पश्चिम है, सत् असदके मध्य अनुभवरूप सर्वका ज्ञाता है, प्रत्यक्ष आदिक प्रमाण तिसकेविषे नहीं कर सकते, जैसे जलविषे अग्नि नहीं निकसता है ॥हे मुनीश्वर ! जो कछु तुझने पूछाथा, सो मैं कहा है, तिसविषे चित्तको लगाना, तेरा कल्याण होवे, अब हम अपने वांछित स्थानको जाते हैं, चलौ पार्वती, अपने स्थानको जावें। हे रामजी ! इसप्रकार ईश्वरने जब कहा, तब मैं अयंपाद्यकार पूजन किया, पार्वती अरु गणको लेकर ईश्वर आकाशमार्गको चलते भये, जबलग मुझको दृष्टिआवते रहे, तबलग उनकी ओर मैं देखता रहा, बार मैं अपने कुशके स्थानपर आनि बैठा, जोकछु ईश्वरने उपदेश किया था, सो मैं अपनी सुध बुध साथ विचारने लगा ॥ इति श्रीयोग- वासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमार्थविचारो नामैकचत्वारिंशत्तमः सर्गः॥४१॥ द्विचत्वारिंशत्तमः सर्गः ४२. विश्रांत्यागमनवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जो कछु ईश्वरने मुझसे कहा सो मैं आप भी जानता था, अरु तू भी जानता है, यह जगत् भी असत् है, देखनेवाला भी असत् है, तिस मायारूप जगविषे मैं तुझको सत् क्या कहौं, अरु असत् क्या कहौं, जैसे जलविष द्रवता होती है, तैसे आत्मा- विषे जगत् हैं, जैसे पवनविषे स्पंद होता है, जैसे आकाशविषे शून्यता होती है, तैसे आत्माविषे जगत् है ॥ हे रामजी ! जो कछु पतित प्रवाह- कार आनि प्राप्त होता है, तिसकार मैं देव अर्चन करता हैं, इस क्रमक