पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३२

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विश्रांत्यागमनवर्णन-निचाँणप्रकरण ६. (३०१३) सौ करु, अरु पाछे तुझने पूछा था कि, ब्रह्म अनंत रूपविषे मैं कलंक कैसे प्राप्त भया हौं, सो अब बहुरि प्रश्न केरु, जो मैं उत्तर कहीं ॥ राम उवाच ॥ हे ब्राह्मण ! अब मुझको संशय कछु नहीं रहा सब संशयन हो गया है, जो कछु जानना था सो मैं जाना है, अब मैं परम अकृत्रिम तृप्तताको प्राप्त भया हौं । हे मुनीश्वर ! आत्माविषेन मैल है, न द्वैत हैं, न एक है, कोई कल्पना नहीं, पूर्व मुझको अज्ञान था, तब मैं पूछा था, अब तुम्हारे वचनोंकारि मेरा अज्ञान नष्ट भया है, कलंक कछु नहीं भा- सता, आत्माविषे न जन्म है, न मृत्यु है, सर्व ब्रह्मही हैं ॥ हे मुनीश्वर ! प्रश्न संशयकार उपजता है, सो संशय मेरा नष्ट हो गया है, जैसे जत्रीकी पुतली हिलावनेते रहित अचल होती है, तैसे मैं संशयते रहित अचल चित्त स्थित हौं,. सर्व सारोंका सार मुझको प्राप्त भया है, जैसे सुमेरु अचल होता है, तैसे अचल हौं, कोई क्षोभमुझको नहीं, ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो मुझको त्यागनेयोग्य होवे, अरु ऐसा भी कोई नहीं जो ग्रहण करनेयोग्य होवे, न किसी पदार्थकी मुझको इच्छा है, न अनिच्छा है, शाँतरूपविषे.स्थित हौं, न स्वर्गकी मुझको इच्छा है, न नरकविषे द्वेष है, सर्व ब्रह्मरूप मुझको भासता है, मंदराचल पर्वतकी नाईं आत्मतत्त्वविषे स्थित हौं । हे-मुनीश्वर !जिसको अवस्तुविषवस्तु बुद्धि होती है, अरु कलनाकला हृदयविषे स्थित होती है, सो किसीका ग्रहण करता है, किसीका त्याग करता है, अरु दीनताको प्राप्त होताहै। हे मुनीश्वर ! यह संसार महासमुद्ररूप हैं; रागद्वेषरूपी तिसविषे कल्लोल हैं, अरु शुभअशुभरूपी तिसविषे मत्स्य रहतेहैं, ऐसे भयानक संसारस- सुद्गते अब मैं तुम्हारे प्राकृरिकै तरगया हौं, सब संपदाके अंतृको प्राप्त भया हौं, सब दुःख नष्ट हो गये हैं, सर्वकेसारको प्राप्त भया हौं, पूर्ण आत्मा हौं, अदीनपदुको प्राप्त भया हौं, "अरु प्रमशांत अभेदस- ताको प्राप्त भया हौं, आशारूपी हस्तीको मैंने सिंह होकार माना है, आत्माते इतर मुझको कछु नहीं भासता, सब विकल्पके जाल गलत हो